पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३७२

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सारितोष यतिधर्मका प्रहण । यहां पर यतिशब्दसे साधक । कुण्डल, सकर तनि, रोण ; (गलेमें) अपुस कूपका (ऊपर अथवा पदण्डका ही बोध होता है। पाल्यावस्थामें हाथमें) ग्लङ्गकन ; ( नीचेके हाथमें ) ग्लंग और (पैर में ) जो 'सत्य-ब्रह्मचारी' होते हैं. उन लोगोंको तप. मौन.. ग्लगवटि। इनके सिवाय नागवङ शल प्रभति बहतसे यज्ञ, दया, क्षमा, अलोभ, दम, शमता, जितात्मता (जित - अलङ्कार सम्पूर्ण अंगोंकी शोभा बढ़ाते हैं। श्री उमा न्दियता ), दान, अनमः, अद्वेष, अराग, सर्व विषयों में प्रभृति शिवजाया और विष्णु मूर्तियोंके भी तरह तरह के विरागत्याग तथा भेदशानिर्णयकुशलता आदि विषयों आभूषण हैं। को शिक्षा देनी पड़ती है। इसीको वे लोग धर्म प्रत्यङ्ग प्रत्येक मन्दिरमें मंकु ( माणवक ) नामका एक लक्षण कहते हैं। अन्यान्य बहुत विषयों में ये लोग तत्त्वावधायक आचार्य रहता है। मन्दिर संस्कार और ब्रह्माण्ड पुगणके अनुवती हो कर चलते हैं। उपहारके उत्सर्ग करनेके समय वेदपाठ प्रभृति विषयोंमें प्रत्येक पण्डित प्रतिदिन वेद मनोका पाठ करते। उसकी आवश्यकता होती है। पुरुष या स्त्री दोनों ही हैं। स्त्रियां पूजाके उपकरण नैवेद्य और ओदि तैयार मंकु हो सकते हैं । शुदको छोड़ और सभी वर्ण के मनुष्य कर देवताके सामने उपस्थित करती हैं। केवल मात्र। इस पदके अधिकारी होते हैं। किंतु ब्राह्मणकी विवा- वेवादिष्ट बन्नक्किन पुरुष महोत्मबके उपकरणों का आयो हिता सवर्णा स्त्रीको छोड़ और कोई भी ब्राह्मण-स्त्री इस जन करते हैं। काल, दुर्गा और भूत आदि देवों के पदको नहीं पा सकतो। मंकुसे पदण्ड पद श्रेष्ठ है और सामने वे लोग कुक्कुट, हंस, शूकर तथा महापूजामें पदण्डोंसे भी पंडित लोगोंने ज्ञान और धर्मकर्म कार्य में महिष, बकरे, हरिण, कुत्ते आदि पशुओंको बलि देते हैं। श्रेष्ठता प्राप्त की है। ववलेन लोग ईश्वरानभिज्ञ होने पर कुत्ते आदि घृण्यपशुओं का मांस कोई भी नहीं खाता। भी कार्यकालमें वे मंकु लोगोंके समान मन्त्रपाठ करा गुनु अगुङ्ग पर्वतके नीचे वासुकिके समीप तोयसिन्धु सकते हैं। चवलेन पंडितोंके समान रोग चिकित्सा और तपोवनमें गङ्गा नामकी छोटो नदी बहती है । पुरो- भी करते हैं। रोगको झाडनेके समय वे मन्त्रपाठ हित लोग इसके जलको तना पवित्र नहीं मानते। उनका करते करते रोगीके शरीरमें अपनी निश्वास वायुको प्रवेश कहना है, कि पवित्र जलवाली सिंधुनदी क्लिङ्ग ( कलिङ्ग करा देते हैं। अर्थात् भारतवर्ष ) देशमें :बहती है। उसका जल यहां राजाओंके महोत्सवमें, उच्चपदस्थ मनुष्योंको अन्त्येष्टि नहीं मिलनेके कारण वे लोग : लशुद्धि के लिये यमुना, क्रिया और पूर्णिमा तथा अमावस्याकी पूजा। पदण्ड कावेरो, सिन्धु, गङ्गा, सरयू आदिका नाम उच्चारण करते ( पंडा ) श्वेत बस्त्र पहनते, माथे पर जटा रखते और हैं। ककुद्युक्त सफेद गायको छोड़ अन्य किसीके जटाओंके बांधनेके लिये माथे पर केशोभरण बांधते हैं। दूधसे वे लोग देवोपहारके लिपे घी तैयार नहीं करते। वह मुकुटके समान स्वर्ण मंडित, स्थान स्थानमें सूर्य धे गोधनको यद्यपि पवित्र नहीं मानते, तो भी कभी कान्तमणि शोभित होता है। उस केशोभरणके ठीक गोहत्या नहीं करते हैं। बीचमें मस्तकके ऊपर स्फटिक निर्मित लिंग लगा रहता साधारण रूपसे देवपूजामें पदण्डोंको वस्त्र और है। कुण्डलके सिवाय उनके अन्य कर्णाभरण भी होता दक्षिणा दो जाती है। प्रसाद उपकरण आदि गृहस्थ ही है। अलावा इसके वे आत्माभरण, वायुभरण, हस्ता लेते हैं। राजयज्ञ और अन्त्येष्टिक्रियामें पदण्डोंको भरण नामके भनेक आभरण और अंगूठी पहनते हैं। बहुत लाभ होता है। पूजाके भन्तमें इनको दक्षिणा इनमें जो लिदण्डो ब्राह्मणबन्ध (यझोपवीत ) धारण करते मिलती है। देवके शरीरमें शोभावृद्धि के लिये नाना हैं उसके प्रन्धिस्थलमें तीन लिंगमूर्ति, नीचे तरहके आभूषण पहराते हैं। त्रिमूर्ति-सूचक भिन्न भिन्न वर्णके तीन पत्थर रहते हैं। शिवजीके अलङ्कार ये सब है--(मस्तकमें) ग्लुङ्गचण्डि, यज्ञोपवीताकारमें घुमा कर वे उत्तरीय वस्त्रको वामस्कंध- पपूदुकन, पट्टिश, मङ्गलविजय, चूड़ामणि ; (कर्णमें ) से दक्षिण हाथके नीचे डालते हैं। पदण्डोंको छोड़