पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३१०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०४ बाणलिङ्ग-वागणेघरविद्यालङ्कार "ताम्री वा स्फाटिको वाणी पाषाणी राजती तथा। "वाणलिङ्गमहाभाग संसारावाहि मां प्रभो। वेदिका च प्रकर्त्तव्या तत्र संस्थाप्य पूजयेत् ॥ नमस्ते चोग्ररूपाय नमस्ते व्यक्तयोनये॥ प्रत्यहं योऽर्चयेलिङ्ग नामद भक्तिभावतः । संसाराकारिणे तुभ्य नमस्ते सूक्ष्मरूपधृक् । ऐहिक किं फलं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता ॥" प्रमत्ताय महेन्द्राय कालरूपाय नमः॥ ( सूतसंहिता) दहनाय नमस्तुभ्य नमस्ते योगकारिणे । बाणलिंग नाना प्रकारके हैं जिनमेंसे कितने मोक्षा- भोगिनां भोगकर्ते च मोक्षदात्रे नमोनमः॥" थियो के, कितने गृहस्थोंके और कितने संन्यासियोंके इत्यादि । शुभजनक हैं। योगसार, वाणलि गस्तोत्र नर्मदासम्म देखो। निन्दनीय लिङ्ग-बाणलिङ्ग यदि कर्कश हो, तो बाणवार (सं० पु०) बाणं परमुक्तशरं वारयतीति णिच - उसकी पूजा नहीं करनी चाहिये, करनेसे स्त्री और अण। भटादिका चोलाकृतिसन्नाह । पर्याय---वारवाण, पुत्रका नाश होता है। एक पार्श्वस्थित लिङ्ग, भग्नलिङ्ग, वारण, चोलक। छिद्रलिङ्ग और जिस लिङ्गका अग्रभाग तीक्ष्ण हो वैसा बाणविद्या (सं० स्त्री० ) वह विद्या जिससे वाण चलाना लिङ्ग, शीर्षदेशवक, नाम्न अर्थात् त्रिकोण लिङ्ग, अति- आवे, तीरंदाजी। स्थूल और अति कृश लिङ्गपूजामें प्रशस्त नहीं है। |बाणसुता ( स० स्त्री०) बाणस्य वाणासुरस्य सुता। कपिलवर्ण अथवा घनाभलिङ्ग मोक्षार्थियों के लिये शुभ- ऊषा। जनक है। जिस लिङ्गका वर्ण भ्रमरके जैसा है, वैसा ही बाणहन् ( स० पु० ) बाणं वाणासुर' हन्तीति हन्-क्किए । लिङ्ग गृहस्थोंके पक्षमें शुभकर माना गया है । इस लिङ्गका इस लिङ्गका विष्णु। सपीठ और अपोठ दोनों ही अवस्थामें पूजन किया जा | बाणा (स० स्त्रो०) १ वाणमूल । २ नीलपुष्प झिण्टीक्ष प, सकता है। बाणलिङ्गपूजामें आवाहन वा विसर्जन कुछ | नीली कटसरैया। भी नहीं करना होता है। स्त्रीशूद्रको भी इस बाणलिङ्गके बाणारि ( स० पु० ) बाणस्य बाणासुरस्य अरिः । विष्णु। पूजनमें अधिकार है। शिवका जो ध्यान है उससे भी। बाणाश्रय ( स० पु०) बाणस्य आश्रयः । धनुः । बाणलिङ्ग-पूजा की जा सकती है अथवा निम्नोक्त ध्यान- बाणासन (स० क्ली०) बाणस्य आसनं । धनुः । से भी पूजा कर सकते हैं। ध्यान यथा- बाणासुर (सपु) राजा बलिके सौ पुत्रों से सबसे बड़े "ओं प्रमत्त शक्तिसंयुक्त बाणाख्यञ्च महाप्रभम् । कामयाणान्वितं देवं संसारदहनक्षमम् ॥ | पुत्रका नाम । बाण देखो। शृङ्गारादिरसोल्लासं बाणाख्य परमेश्वरम् । | बाणाहा ( स० स्त्री० ) १ मुञ्ज तृण। २ नील कमल। एवं ध्यात्वा बाणलिङ्ग यजेत्तं परमं शिवम् ॥” बाणिज (सं० पु०) बणिगेव, बणिज-अण। १ बणिक । बाणलिङ्ग नाम पड़नेका कारण सूतसंहितामें इस २ पाडवाग्नि। प्रकार लिखा है -राजा बाण महादेवके अतिशय प्रिय थे बाणिजक (सपु०) बणिगेव वणिज्-ठञ्। १ बाड़- और प्रतिदिन शिवलिङ्ग बना कर उनकी पूजा करते थे। वाग्नि। २ वणिक् । (नि.) ३ धूर्त । इस प्रकार दिष्य परिमाण सौ वर्ष तक उन्होंने शिव-पूजा बाणिज्य ( स० पु. ) व्यापार, रोजगार। की थी। आखिर महादेवने प्रसन्न हो कर उन्हें इस बाणी (स स्त्री०) नीलभिएटो, नीली कटसरैया। प्रकार वर दिया था, "मैं तुझे चौदह करोड़ लिङ्ग प्रदान बाणेश्वर (स'० पु०) १ शिवलिङ्गभेद । २ विवादार्णव- करता हूं, ये सब सिद्ध लिङ्ग हैं। ये लिङ्ग नर्मदादि पुण्य- सेतु नामक ग्रन्थके एक संग्रहकर्ता। नदी में रहेंगे" यथानियम इस बाणलिङ्गकी पूजा और . बाणेश्वरविद्यालङ्कार देखो। पूजाके बाद स्तव करके पूजा समाप्त करनी होती है। वाणेश्वरविद्यालङ्गार--बङ्गालके एक विख्यातं पण्डित । इन- स्तव यथा- | को स्मरण शक्ति बड़ो तीन थी। इनके पिता जो सब