पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/२३२

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२०६ कुष्माण्ड, इक्ष दण्ड, महा और आसव पे भी बलिमें बकरोंमें जिनकी अवस्था तीन वर्षसे कमती है उनको गिने जाते हैं। जिस जगह पशुकी बलि नहीं दी जाती, बलिमें चढ़ाना नहीं चाहिये। यदि ऐसा पशु कोई बलिमें उस जगह इक्ष और कुष्माण्ड-बलि ही विधेय है । जो गढ़ावे, तो आत्मा, पुन और धनका क्षय होता है। वैष्णव हैं वे अपने घर पर जब शक्तिकी पूजा करते “शिशूनां बलिदानेन चात्मपुत्र धनक्षयः।” (तथितत्त्व। हैं तब पशु-बलिके बदले कुष्माण्ड और इक्ष बलि दुर्गोत्सवतत्त्वमें ऐसा लिखा है- देते हैं इस बलिके देनेसे भी देवी कृष्णसार और “पशुधातपूर्णकरक्तशोषयोवलित्व" बकरेके मांसकी तरह प्रसन्न होती हैं । बलिदानमें चन्द्र- 'शु मारनेके बाद मस्तक और रक्तका दान करना ही हास (खड्ग ) वा कीसे बलिको काटना प्रशस्त है : बलि है। इस पशुको तलबारसे मारना चाहिये । खड्गका हसिया, तलबार या सांकलसे बलिच्छेद करना मध्यम परिमाण इस प्रकार बतलाया गया है-उसको मूठ बारह एवं उस्तरा और भालेसे बलिको काटना अधम है। अंगुल, लम्बाई ३२ अंगुल और चौड़ाई ६ अंगुल, शक्ति और बाणसे बलिको काटना बिलकुल निषिद्ध है। धार खूब तेज हो, ऐसी तलबारको उत्तर वा पूर्वको तरफ जिन अस्त्रोंसे बलिच्छेद करना निषिद्ध बतलाया गया है। कर बलि करनी चाहिये। उनसे यदि कोई करे, तो देवी ग्रहण न करतीं और बलिका एक आघातमें ही वलिच्छेद करना चाहिये। यदि एक देनेवाला शीघ्र ही मृत्यु-मुम्वमें पहुंचता है । बलि देनेके आघातसे बलिच्छेद न हो, तो उस साल बलि कराने पहले पशुको स्नान करा कर विधिके अनुसार प्रोक्षण और खडगकी पूजा करनी चाहिये । पोळे उसी खडसे वाले और करनेवालेको पद पद पर विन्न होवेंगे, ऐसा पशुको उत्तर वा पूर्वाभिमुख कर बलि देनी चाहिये। जानना चाहिये। इसलिये बलि देने में विशेष सावधानी- बलि देने में जो हिंसाका दोष लगता है उसको निवा- को जरूरत है । बलिमें यदि विघ्न हो, तो उसकी शान्ति रण करनेके लिये मलों का पाठ किया जाता है। मंत्रोंका अवश्य करनी चाहिये। तात्पर्य इस प्रकार है - स्वयं ब्रह्माजीने यज्ञके लिये पशुओं बलिदानके समय जो पशु एक आघातसे नहीं कटता, की सृष्टि की है। इसीलिये मैं यशमें पशुकी बलि चढ़ाता। उसको फिर काट कर उसी पशुके मांससे होम करना हूं, बलि चढ़ाने में जो हिंसा हुई है उसका दोष मुझे न हो। चाहिये। विधिके अनुसार उसके मांससे पूजा करनेसे बलिके रक्तको पात्रमें रख कर देना चाहिये । वैभवके अनु- शान्ति होती है । अथवा ऐसा न कर सके, तो सहस्रतारा सार सुवर्ण, कांसे, पीतल वा चांदीका पात्र बलिके लिये नामके मंत्रको जप कर देवीके उद्देश्यसे उसके बदले में बनाना चाहिये । जो अत्यंत गरीब हैं वे यज्ञमें चढ़ाने एक और बलि चढ़ानी चाहिये । जो पशु काटनेके समय लायक लकड़ीके पात्रमें भी बलिदानके रकको चढ़ा बांधा जाता है उसका मांस अथवा रुधिर कुछ भी नहीं सकते हैं। जब बहुत-सी बलि चढ़ाई जाती हैं तब दो या चढ़ाना चाहिये । उस पशुके मांससे सहन बार होम कर तीनको सामने कर सबोंको एक साथ ही चढ़ाया जाता ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान करना चाहिये। इस प्रकार है। जिन पशुओंकी बलि दी जाती है वे बलि होनेके बाद शान्ति करनेसे उसका प्रतिकार होता है। . दिव्यदेहको प्राप्त करते हैं और स्वर्गमें ऐश्वर्य आदि सम्प- बकरे वा भेड को चढ़ाने में ही ऐसी शान्ति करनी होती दाय भोगते हैं । वे सदाके लिये पशुयोनिको छोड़ देते हैं। है। यदि मैंसा बलिदानके समय एक माघातसे न कर भेडा, भैंसा और बकरेकी बलि हो आज कल प्रचलित - जावे तो उसकी पृथक रोतिले शान्ति करनी होगी। देखी जाती हैं। मेष और बकरे एक ही मन्त्रसे देवीके : जिस पशुकी बलि देनी होती है वह पशु चुषा, सामने चढ़ाने होते हैं : किन्तु जहाँ पर यह कहा जाता है, कि मैं कौन-सा पशु चढ़ाता है यहां पर उसका पृथक् । । व्याधि रहित, सम्पूर्ण अङ्गाँसे परिपूर्ण और अच्छे लक्षणों- नाम लेना पड़ता है। महिषकी बलि देनेका दूसरा मन्त्र से युक्त होना चाहिये। शिशु, वृद्ध, मगहीन और मोटे है। (कालिकापुराण ६६ अ.) लक्षणघाला पशु बलिदानमें निन्दनीय गिना जाता है।