पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/१७१

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पदरिका मन्दिर प्रतिष्ठित है। इसीके समीप वह्नितीर्थ और ब्रह्म- बदग्निाथप्रतिष्ठाके प्रसङ्गमें यहां एक अच्छी गल्प कपाल, पश्चिमकी ओर १ कोसके मध्य ही उर्वशीतीर्थ : सुनी जाती है। वह इस प्रकार है, नारदकुण्ड आ तथा स्वर्णधारा नदी पर शेषतीर्थ है। बदरीनाथके वाम कर शङ्कराचायने वारत-सी देवभूत्तियां जलमें देखीं। पार्श्व में इन्द्रधारा, देवधारा, बसुधारा, धर्मशिला और . उसी समय आकाश वाणी मु जिसके अनुसार ये उन सोम नामक नदी, सत्यपद, चक्र, द्वादशादित्य, सप्तर्षि. : सब प्रतिमूर्तियोंको वदरि वृक्ष के नीचे स्थापन कर गये। रुद्र, ब्रह्मा, नर-नारायण, व्यास, केशवप्रयाग और उस वृक्षने धीरे धीरे बढ़ कर जिन्नमा स्थान आक्रान्त पाण्डवी नामक तीर्थ तथा मुचुकुन्द और मणिभद्र नामक किया, वह आदिबदरी कहलाया। गन्धमादन पतके ह्रद विद्यमान हैं। नीचे यह स्थान वैष्णवधर्म पुनस्थापनके लिये मनोनीत इस अति प्राचीन तीर्थका माहात्म्य बहुतसे प्राचीन । हुआ। इसी स्थान पर नरनारायणका आश्रम है। प्रन्थों में पाया जाता है। महाभारतमें लिखा है, कि नर वैष्णव प्रभावको वृद्धि के साथ साथ यहां नरनारायण नारायण अर्जुनने यहां घोरतर तपस्या की थी। श्रीकृष्ण और बदरीनाथके मन्दिगदि बनाये गये। एतद्भिन्न बदरिकाश्रममें अर्जुनके साथ बहुत दिन ठहरे थे। फिर लक्ष्मी, मातृकामूर्ति, महादेव और अपरापर विष्णुमत्तिके दूसरी जगह लिखा है, कि श्रीकृष्णने यहां पर सायंगृह मन्दिर स्थापित हुए हैं। विणुके आदेशसे अग्निदेव मुनिके साथ साक्षात् किया था । द्वारकाध्वंसके बाद । प्रस्रवणमें अवस्थान करते हैं। क्रमशः यह वैष्णव क्षेत्र पाण्डवोंने ध्यासका आदेश पा कर हिमालयको महा | तप्तकुण्ड, नारदकुण्ड, ब्रह्मकपाली, कर्मधारा, गरुड़शिला, प्रस्थान किया था। पूर्वमें कर्माचल और पश्चिममें नारदशिला, मार्कण्डेयशिला, वराहशिला, नरसि हशिला, यमुनोत्तरी तथा दून नदी तक विस्तृत भूभागके अनेक वसुधारा तीर्थ, सत्यपथकुण्ड और त्रिकोणकुण्ड आदि स्थान आज भी पाण्डवोंके आगमनको गवाही देते हैं। १२ छोटे छोटे अंशोंमें विभक्त हो गया है । स्कन्दपुराणीय केदारेश्वरके पांच शिवमन्दिर पाण्डवप्रतिष्ठित माने जाते हिमवतखण्ड में उन सब तीर्थीका माहात्म्य वर्णित है। हैं। पाण्डुकेश्वरमें उन्होंने तपस्या की थी। वामना- बदरीनाथमें विष्णु नरसिंहरूपम विराजित हैं। वतारमें भगवान् विष्णु यहां पर तपस्या करके पूर्णता इनमें नरनारायण और नर्गमह, बराह, नारद, गरुड़ और प्राप्त की थी, इसीसे यह पुण्यक्षेत्र सिद्धाश्रम नामसे भी : अमार्क आदि शक्तियोंका समन्वय हुआ है। बदरी प्रसिद्ध है। कहते हैं, कि राम और लक्ष्मणने रावणको नामक मन्दिरके पाश्वमें और भी चार मन्दिर प्रतिष्ठित मार ब्रह्मवधपापसे निष्कृति पानेके लिये हषाकेश और हैं। वे पांचों मन्दिर पञ्च बदरी नामसे प्रसिद्ध हैं। ५) तपोवनमें तपस्या की थी। बररुचिने यहां आ कर प्रवाद है कि शङ्खचक्रगदापमधारी विष्ण महाकुम्भके महादेवकी भाराधना की और अन्तकालको वे पुष्पदन्त(४): दिन यहांके नीलकण्ठ पर्वत शिखर पर आविर्भूत होते की तरह स्वगधाम चले गये कौशाम्बीराज राज्यकार्यसे हैं। इनके दर्शन माधक मात्र ही पा सकते हैं। पाण्ड- उस्यक्त हो शेष जीवन देवसेवामें बिताने के लिये बर्दारका केश्वरमें योगबदरीका मन्दिर स्थापित है। यहां भग श्रम माये थे। वान्की वासुदेवमूर्ति प्रतिष्ठित हैं । (६) ऊरगांव ध्यान- (४) पपपुराणमें पदरीको सब तीर्थों की अपेक्षा पुणप्र. बदरी तथा वृद्धकेदार और कल्पेश्वर शिवमन्दिर, तम वैष्णवतीर्थ बतलाया है। पुष्पदन्तने महादेव की तपस्या अणिमठगे वृद्धवदरी-मूत्ति स्थापित हैं। यहां हरिवंश करके पुशर्मा राजकन्या भयाण पाणिग्रहण किया था। दुखापा माने पर वे दोनों वानप्रस्थ अवलम्बन कर बदरिका (५) योगवदरी, यानबदरी, बुद्धवदरी और भादि- "माये थे । पुष्पदन्त के भाई गुणायने भी यहाँ देवसेवामें अपना दी। पांडवप्रतिष्ठित पञ्चविष-मन्दिर भी पञ्चकेदारके जीवन बिताया था। वामनपुराणमें भी केदारनाथ और नामसे प्रसिद्ध है। "बदरीनाथ देवतीर्थकी पवित्रता पर्णित हुई है। (६) किरातगण भी वारदेवकी उपासना करते थे। Vol. xv. 2