पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/१४

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प्रत्यभाव "कारणानुविधायित्वात् कार्याणां तत्स्वभावता।। है। इस सम्बन्धमें त्रिकालदर्शी सभी ऋषि अनुभव करते नानायोन्याकृतीः सत्त्वो धत्ते तो द्रुतलोहवत् ॥” हैं और कहते भी हैं, कि जोवके जीवस्वभावके अन्तर्गत (वेदान्तभा० ) मरणत्रास ही पूर्वजन्म रहनेका चिह्न है। जो जिससे उत्पन्न होता है वह उसीका स्वभाव २। इच्छा एक आत्मगुण वा आत्मलग्न ग्रहण करता है। इसी नियमके अनुगुणसे नाना योनिसे | शक्तिविशेष है। थोड़ा गौर कर देखो, किसी प्रकार नाना आकारका जीव उत्पन्न होता है। गलाया हुआ इसका उदय होता है। इच्छाका जनक सौन्दर्यशान है। लोहा सांचेका आकार धारण करता है, दूसरेका नहीं। अच्छी तरह अनुभव नहीं होनेसे तथा यह मेरा अनुकूल जीव जब जिस योनिमें उत्पन्न होता है, तब उसी योनिके वा उपकारक है, ऐसा ज्ञान नहीं होनेसे उस विषयमें किसी अनुरूप आकार वा स्वभावको प्राप्त होता है। प्राक्तन हालतसे इच्छाका उद्रेक नहीं होगा। इच्छाकी तरह संस्कार अधिक परिमाणमें अभिभूत हुआ करता है। भय, त्रास, प्रवृत्ति आदि समस्त अन्तःप्रवृत्तिके प्रति यही इसी कारण मानवीय ज्ञान लुप्त रहता है और घोड़े के नियम चिरप्रतिष्ठित है । अतएव सद्यःप्रसूत शिशुकी आकार तथा स्वभाव ध्यतीत मानवका आकार और इच्छा, प्रवृत्ति और वास आदिके साथ जब इहजन्मका स्वभाव नहीं होता। वैसा कोई सम्बन्ध नहीं देखा जाता है, तब यह अवश्य संसारी जीव स्वोपार्जित ज्ञान और कर्म के अनुसार कह सकते हैं, कि उन सबके साथ पूर्वजन्मका सम्बन्ध कभी उत्पन्न होता है और कभी अवनत, कभी उत्कृष्ट है। पूर्वजन्मार्जित वे सब संस्कार उसे उन सब विषयों में देह पाता है और कभी निकृष्ट । जो कहते हैं, कि जन्मान्तर रुचि, इच्छा और प्रवृत्ति आदि उत्पन्न कर चरितार्थ होते नहीं है, उनके लिये कोई मत्यपूर्ण मद्युक्ति नहीं है। हैं। अतएव सद्योजात शिशुको स्तन्यपान प्रवृत्ति भी वरन् जन्मान्तरके अस्तित्वके पक्षमें सद्युक्तियां देखनेमें जन्मान्तर रहनेका दूसरा चिह्न है। आती हैं। ३। सौ वर्षका वृद्ध भी शरीरनिरपेक्षज्ञानसे अपना १। प्राणिमात्रके ही एक नित्य और नियमित अभि- वृद्धत्व अनुभव नहीं करता। वह जब अपने शरीर और निवेश है अर्थात् स्वाभाविक प्रार्थना है। जीवमात्र हो। इन्द्रियके प्रति लक्ष्य करता है, तब ही वह समझता है, मरना नहीं चाहता, मरणके प्रति उनका विशेष विद्वेष कि मैं वृद्ध हो गया है। यह नियम बालकमें भी विद्य- देखा जाता है। जितने प्रकारके भय वा त्रास हैं, सर्वा-: मान है। आत्माके अजर अमर होनेसे ही ऐसी घटना पेक्षा मरणत्रास अधिक बलवान् और अनिवार्य है। हुआ करती है। आत्मा वृद्ध नहीं होती और न मरती मरणत्राम मद्योजात शिशुमें भी देखा जाता है । जो कभी हो है, तदाश्रित शरीर ही वृद्ध होता और मरता है। भी मरण यातनाका अनुभव नहीं करता, वैसे व्यक्तिके सुतरां आत्माके अमरत्व और देहके परिवर्तन द्वारा भी अन्तरमें भी मारक वस्तु देखनेसे त्रास उत्पन्न होता है। जन्मान्तरका रहना अनुमित होता है। मरणमें यदि क्लेश रहे और उसका यदि कभी भी अनु ४। विद्याबुद्धि सबोंको समान नहीं होना भी भव होवे, तो उसी हालतमें मारक वस्तु देखनेसे लास- जम्मान्तर रहनेका अन्यतम चिह है। ऐसे बहुतसे मनुष्य कम्पादि उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। सुतरां यह हैं जो थोड़ी उमरमें ही वेदवेदाङ्गपारग हो जाते हैं । फिर विश्वास करना उचित है, कि जन्मान्तरीय मरणदुःख कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर खर्च करके भी उसका भोग वा अनुभवका संस्कार उसकी अन्तरिन्द्रियमें छिपा कुछ भी हृदय म नहीं कर सकते। था, आज उसने अज्ञात तौरसे उद्बद्ध हो कर उसे भीत ५। आग्रह अर्थात् हठ । इसका दूसरा नाम और कम्पित कर डाला है। विशेषतः सद्योजात बालकके प्रवृत्ति निवन्ध है। यह आग्रह भी जन्मान्तर साबित मरणत्रासके साथ इहजन्मका सम्बन्ध नहीं देखा जाता। करनेका अनुमापक है। एक एक विषयमें एक एक इससे भी जन्मान्तरका होना अनुमान किया जा सकता। मनुष्यका ऐसा एक अनिवार्य हठ रहता है, कि मुंडेसे