पस्यभाव • जन्म कुछ भी नहीं है, तब जो यह जन्ममृत्यु होती है, पहले इसी प्रकारका एक शरीर पाया था। यह यदि सत्य सो किसकी ? मनुष्य मरा, शरीर रह गया, अशरीर हो, तो उसका स्मरण क्यों नहीं होता ? जब जन्मान्तरीय आत्मा रहो वा चली गई, .कहां गई ? कहां रहो ? कोई भी विषय स्मरणमें नहीं आता, तब किस प्रकार यह ले कर विवाद करना निष्प्रयोजन है। एकमात्र यही | विश्वास होगा, कि मैं था और मेरा पूर्वजन्म था ? इसका देखना चाहिये, कि शरीर-परिच्युत आत्मा आकाशकी उत्तर यही है, कि शैशवकालकी घटना जब युवावस्थामें तरह सुखदुःख-वजित हुई ? या इहलोककी तरह अथवा याद नहीं आती, शैशवकी बात तो दूर रहे, कलकी कुल इहलोककी अपेक्षा अधिकतर भोगभागी हुई ? भोगभागी बातें आज याद नहीं आती, तब जन्मान्तरकी बात याद हुई, ऐसा कह ही नहीं सकते । चाहे इसमें तर्क भी क्यों आयेगी, यह कहां तक सम्भव है। इस प्रकार स्मरण नहीं नहीं लड़ाया जाय, तो भी यह प्रमाणित नहीं हो सकता। होनेके कई कारण दिखाई देते हैं। अनेक दिन उस विषय- कारण, बिना शरीरके सुखदुःखका भोग हो सकता है, को ख्याल नहीं करनेसे. भय, त्रास और यन्त्रणादि द्वारा यह बिलकुल असम्भव है। शरीरोत्पत्ति नहीं होती। अभिभूत होनेसे तथा रोगविशेषके आक्रमणसे मनुष्यके अथच आत्माके अनन्त सुख और अनन्त उन्नति होती पूर्वाभ्यस्त ज्ञानका विलोप होते देखा जाता है। मनुष्य है, इसका कोई भी प्रमाण नहीं है। आत्मा अजर और जब इसी शरीरमें सामान्य कारणोंसे पूर्वानुभूत विस्मृत भमर है, यदि इसे विश्वास करें, तो अमरताके अनुरूप होते हैं और अति अल्प यातनासे अभिभूत हो उपार्जित सुखदुःख-भोगभागिता पर भी जरूर विश्वास करना शानराशिको खो बैठते हैं, तब जो वह उन्कट मरण. पड़ेगा। रूप देखना चाहता हूं, अथच चक्षु देखना नहीं यन्त्रणा, पीछे उम शरीरका परित्याग और तब एक नूतन चाहता, ऐसा हो ही नहीं सकता। शारीर-ग्रहण इत्यादि कारणोंसे पूर्वजन्मवृत्तान्त विस्मृत सांख्यकारिकामें लिखा है - होगा, इसमें आश्चर्य हो क्या ! "संसरति निरुपभोग भावैरधिवासित लिङ्ग॥" जीव इस देहमें यदि मरणकाल पर्यन्त कर्मज्ञानादिको भोगस्थान यदि स्थूलशरीर न हो, तो सूक्ष्मशरीरमें समानरूपमें अटल और अव्याहत रख सकें, तो सभी भी परिस्फुट भोग सम्भव नहीं। अतएव आत्मा लिङ्ग कर्म और ज्ञान जन्मान्तरमें भी अनुवृत्त होते हैं, लोप नहीं शरीरविशिए रह कर पुनः पुनः स्थूलशरीरको ग्रहण होता। वैसा जीव जातिस्मर नामसे प्रसिद्ध है। करती और पुनः पुनः उसे छोड़ देती है। यद्यपि सुख जन्मान्तरवादियोंमेंसे कोई कोई कहते हैं, कि मनुष्य दुःख आत्माके नहीं है, तो भी अमुक्त आत्माके सुख- मर कर अश्य हो सकता है, यह वात विश्वसनीय नहीं है। दुख-विहीन होनेकी सम्भावना नहीं । (किन्तु केवल नैया अश्वसे अश्व ही होता है, मनुष्य नहीं होता। मनुष्य यिकोंके मतसे सुखदुःख जीवात्माके हैं। इस कारण यह हमेशा मनुष्य ही रहता है । इसके उत्तरमें यही कहना है, अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा, कि आत्माके कभी तिर्यक- कि शरीरोत्पत्तिका बीज आत्मा नहीं है । शरीरोत्पत्तिका शरीर, कभी मनुष्यशरीर, कभो देवशरीर और कभी पशु- बीज कर्माशय है अर्थात् अनुष्ठित ज्ञान और कर्मका पुञ्जी- शरीर हुमा करता है। भूत संस्कार है। इस कारण मानवदेह पा कर जीव दि ___ मनुष्य इस शरीरमें जिस प्रकारके कर्म और ज्ञानमें | निरन्तर अश्वध्यान करे अथवा अश्वशरीर पानेका अन्य- निमग्न रहता है, मरने पर तदनुसार वह देहधारण करता विध कारणकूट संग्रह करे, तो भावी जन्ममें उसके अश्व- है। कर्म हीसे स्थावर शरीर, कर्म हीसे पश्वादि शरीर शरीर क्यों नहीं होगा ? इस पर कोई कोई इस प्रकार और कम हीसे देव-शरीरको प्राप्त होता है। इस विषयमें | आपत्ति करते हैं, --मान लिया पूर्वजन्ममें वा मनुष्य था, जन्मान्तर अस्वीकारवादी आस्तिक इन दोनों सम्प्रदायमें कर्मबलसे इस जन्ममें अश्व हुआ है। परन्तु उसका पूर्वा विशेष मतभेद देखा जाता है। भ्यस्त मनुष्योचित शान कहां गया और अश्वशरीरोचित मात्मा अजरे और अमर है । सुतरां इस आत्माने | ज्ञान ही कहांसे भाया ? इसका उत्तर यह है,--
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/१३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।