तुष्टि (स• प्रो.) तुष-भाव लिन् । १ तोष, सन्तोक ति उपादान्तुष्टि सीको सलिल कहते । नोगे २ बुधिभद। यह बुधि नो प्रकारको है, चार पध्या के समय पा कर मुक्त हो जायगे, ऐसी तुष्टिका नाम मिक और पांच वाच। (माख्यका० ५१) काल है, इसोको पोध करते । माम्य पानसे मुक्ति प्राध्यामिक तुष्टियां ये:-प्रक्षति, उपादान, काल पवन होगी, एसो तुष्टिको भाम्बका। इसका नाम पोर भाग्य । पाध्यामिकका पथ पाभ्यन्तरिक है। प्रतिष्टि है। . . . . सगुण वा निर्गुष व सभो तत्व प्रतिके ही कार्य इनके सिवा विषयवागणित ५ प्रकारको तुष्टि यह जानने जो तष्टि होतो है, उसे प्रत्यास तुष्टि । धनोपार्जन करनेमें बहुत कष्ट होता है। पतन- उपादान-कोई सभी तखौको न जाग कर बस का कोई प्रयोजन नहीं, ऐसा जान कर जो सन्तोष रखा उपादान ग्रहण करत पर्थात् संन्यामसे विवेक होता जाता है, उसे पारतुष्टि करते हैं। धनको रक्षा है, ऐसा समझ संन्याससे जो तष्टि होती है, उसे उपा- करना और भो कठिन है, ऐमा जाम कर विषयपरि. दामात्य तुष्टि करते है। त्यागपूर्वक सन्तुष्ट रहने में जो सन्तोष, उसबा माम काल-काल पा कर पाप की विवेक या मोक्ष प्रात सुपारतुष्टि है। धन नाथ को जानसे बहुत दुण हो जायगा। अतः तत्वाभ्यास नियोजन है, ऐमा जो होता है, उसका नहीं रहना हो पच्छा, ऐसो सुटि जानता है और जो इसोमें मन्तुष्ट रहता है। इस प्रकारको ___ को पारपारतुष्टि करते हैं। ज्यो यो मोम बरते . तुष्टिको कालाय तुष्टि करते है। त्यो लो इच्छा बढ़तो जातो है, पता भोग भो दुस- _भाग्य-भाग्य में होगा तो मोक्ष हो ही जायगा, ऐसो दायक है। उसका त्याग करना हो वेव।स तुष्टिको भाग्याख्य तुष्टि कहत।। बेचार प्रकारको प्रकार त्याग-बुद्धिसे जो सन्तोष उत्पन होता है, उसे तो पाध्यामिक तुष्टि हुई। पत्तमातुष्टि करते है। विषय सम्मम हिमादि । अब बाघ तुष्टिका विषय कहते हैं। वाच विषयोंको नाना प्रकार के दोष होते पर्थात् विना इसीको पर विरतिसे जो शब्द, स्वयं, रूप, रस और गन्धरूप पाच दिये सुख नहीं मिलता, यह जाम कर विषय विमुख प्रकारको तुष्टिया उत्पन होती है, उन्हें वाचतुष्टि कहते होनेमे जो सन्तोष है, उसे उत्तमाभतुष्टि की। है। पर्जन, रक्षण, चय, सह और हिंसा इन पांच दो प्रकारको तुष्टियां ज्ञानयतिको जोधक वा . विषयों से विना अर्थात् इनसे प्रत्येकका दोष देख कर सक। इनके नहीं रहनसे जाननामक और योग- उनसे विरत हो जानेका नाम पर वाचतुष्टि है। नाशक विपर्याय सभो इत्तियां प्रकस हो जाती है। (सांख्यका०) (सांख्यद) तुष-कत्तरि हर तुष्टि प्राध्यामिकादिक भेदमे *प्रकारको है, चार मानकापोमिसे एक माहकाका नाम । सदेवता देखे। पाध्यामिको तुष्टि और पांच वाचतुष्टि पालभावसे या अतिविशेष। (देवीभाग. १९५१) ५ क पांड पामबुद्धिसे ग्रहण करनेका नाम पाध्यामिक है । प्रक्षतिके भाइयों से एक । विवेकज्ञानकोशे मुक्ति कहते है. इस कारण प्रति तुष्टिकर (म०वि०) तुष्टि करोति मिटा सन्तोष हो पास्य है। प्रक्षतिक मिया और .दूमरा उपास्य की कर, ढनिजनक । नहीं है, ऐसा सोच कर जो तुष्टि होती है, उसे प्रताति- तुष्टिजनक ( स० वि० ) तुष्टोमा जनकः तत् । सन्तोष तुष्टि करते है, इसका नाम बन्न है। व्रतधारण पोर जनका, बप्तिकर। संन्यासादिक सिवा विवेकसे मुक्ति नहीं हो मुतिः . तुष्टिमत् (स' वि०) तुष्टिरस्त्यस्य तुष्टि-मतुप । १ तोष- के प्रतिकारण है, ऐसा समझ कर पनेका व्रतो हो जाते . युत, सन्तुष्ट। (पु.) २ उपसिनकी पुत्र, कसके भाई। .१और सन्तुष्ट रहते हैं। इस प्रकारको तुष्टिका नाम . (भाग २) Vol. Ix. 176
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