पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६८

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६४ होराल टोरा ( पु.) वह तराजू जिससे जुलाहे सूत गुरु उपनयमके बाद भिषाको सार पारी और सौली। पाचार, पग्निकार्य और सन्ध्योपासनाकी थिया । टोरी (हि. पु. ) अरहरका छिनके महित खड़ा दाना बालकका उदय नवनीतको नाई सुकोमल। जो तेयार को हुई दालमें रह जाती है। लड़कपनसे वह जिस भावमें परिचालित किया जायमा टोल-१ चतुष्पाठो. मस्कृत विद्याशिक्षा का स्थान । यदि युवावस्थाम भो वा उमो भाव गठित होगा तथा उसके कोई जीवनको उति करनी चाहे तो मबसे पहले विद्या अनुसार कार्यप्रणाली जोवनके भावि-शुभाशम उत्पन गिजाकी आवश्यकता है । जिस ममाजके मनुष। जितने करगो। सो अवस्था वालकको विशेष सावधानीसे ही शिक्षित हैं, वे उतनो ही मसार और प्रामाको विद्या शिक्षा देनो पावश्यक है। केवल बहुतसी पुस्तकों. उबप्ति कर सकते हैं। एकमात्र विद्याशिधा ही सब को कण्ठस्थ कर लेमेका नाम विधाशिक्षा नहीं है। प्रकारको उबतिका मुल है। प्रत्येक सभ्य जाति के जिम विद्याके पढ़नेसे मनुषा देवभाव धारण कर लें और मनुष्यों में विद्याशिक्षाको व्यवस्था एक न एक प्रकारको अशेष गुणराशिके पाधार हो जावें वही प्रत विद्या- निर्धारित है। हम लोगों के देश में भी विद्याशिक्षाका स्थान शिक्षा है। गुरु लोग वही शिक्षा छात्रको देते थे। वे टोल है। कबसे यह टोल-प्रथा प्रचलित हुई है, उसका जानते थे, कि छात्रोंके अन्त:करणको निमल नहीं निणं य करना अत्यन्त कठिन है। किन्तु थोड़ी विवेचना करानेसे पान्तर और वाद्यविषयका पूर्ण प्रतिविम्ब उस कर देखनेसे स्पष्ट हो अनुमान किया जाता है, कि यह पर नहीं पड़ सकता और विएड सत्वका स्फूरण नहीं आमचर्यका अंशमात्र है । जबसे हम लोगों के देशर्म ब्रह्म होनेसे उसमें जानामिका कृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती चयंप्रथा बिलकुल पस्तमित हो गई है, तभी यह टोल है। सो कारण जामोपदेशक पहले मानमिक निर्मलता प्रथा प्रवत्तित हो गई है, इसमें छ भो सन्द नहीं पावश्यक है। यह निमलता एकमात्र शौचके अधीन है। ब्रह्मचर्य के प्रभावसे हो हम लोगों के देश में प्रकत है। शौच भो दो सरहका है, वाच पोर पान्तर । मदादि शिक्षा और उबालिका प्रभाव हो गया है। हारा वाघ शौच पोर मानसिक मलादि पान्तर-शौच पूर्व समयमें सोनों वर्ष के बालक किस तरह गुरुग्रह है। ये दोनों प्रकार के शौच सम्पन्न हो जानेसे उदयमें में रह कर विद्यार्जन करते थे, इम विषयको स्थिर करने में ज्ञानज्योतिका विकाश होता है। इसी कारण पार्य माह्मचर्यके विषयको पालोचना करनो आवश्यक है। ऋषिगण वेदाध्ययनने पहलेही पोचशिक्षा देते थे। मी भारतमें जब हिन्दूधर्म का पूर्ण विकास तथा वर्गा- उस शिक्षाका कसा दुर्दिन हो पाया है। शिक्षक वा श्रमविभाग था, तब गुरु और विद्यार्थी किस प्रकार परि- छात्र शौच किसे कहते हैं, वह भो नहीं जानते तथा चालित होते थे, उसोको देखना चाहिये। जानमेको कोशिश भी नहीं करते है। शौचशिचाक तीनों वर्ण के बालक उपनयनके बाद गुरुग्टहमें समान होने पर पार्य ऋषिगण प्राचार शिक्षा देते थे । पा कर रहते थे। उपनयनकाल बाबका पाठ, गुरुके प्रति शिवाका कैसा व्यवहार होना चाहिये तथा चत्रियका ग्यारह और वैश्यका वारा वर्षे निर्दिष्ट इस अवस्था में किस द्रश्यको सेवा और किस विषयमा था। यथासमय बालकगण उपमौत हो कर परित्याग करना चाहिये इसी विषयको शिक्षाका नाम पितामाता और प्रात्मीय स्वजनोंसे कुछ कुछ भिना से पाचारशिक्षा। गुलपण जाते थे। गुरुग्टहमें ये कौनसी शिक्षा प्राम ब्रह्मचारोको समावर्तनवाल तक नियोग विधि करते थे तथा किस पादर्श से उनकादय संगठित होता पौर निषेधका पालन करना चाहिये। . बा, उसके विषय में मनुने यों कहा है- विधि । पाले इन्द्रियजय, प्रतिदिन जस, पुष्प, गोमय . . "पनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः। (गोबर), सम, समिध पादि पारण, सद बाबपोंकी माचारमग्मिकार्य सम्योपासनमेक्स ।" (मनु) धमाकरी यत्ति अनुसार मिचायसवान,