पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/५८३

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पाय तोने कौतुक करने की इच्छासे विपके पा कर महा मन्दिरादि एक प्रकार सुदृढ़ स्थान सदृश ग्यवान देवको आँख मूदो महादेवको आँख बंद हो जानेसे होते थे । १७५३ में मूसंजा पलोखों और महाराष्ट्रीय सम्य विखसमार अन्धकाराच्छन हो गया । यद्यपि या सेनापति मुरारिरावने यह मन्दिर पवरोध किया था। देवलोला थोड़े हो समय तक के लिये थो, तो भो पृथ्वो किन्तु कर्णाटकके नवाबहारा मन्दिरको रक्षा की गई। पर अन्धकार बहुत काल तक रहो । चन्द्रसूर्य का उदय १७५७९ में फ्रान्सोसियोंने यह स्थान अधिकार किया। बंद हो गया। प्रकाशके प्रभावसे त्रिभुवन हाहाकार १८५७९०में तियागरके लणरावने पुनः स पर दखल करता हुआ शिवजीके निकट पहुंचा। शिवजो सारी किया । १७६०९०में कमान टिफेनने कर्णाटक नवाब- बात सुन कर पाव तोके अपर असन्तुष्ट हुए पोर उन्हें को भोरमे बमका उबार किया। १५१में यह टोपूर्व शाप देते हुए बोले 'जब तुमने पृथ्योका पमङ्गल हुअा हाथ लगा। अन्त में १७५३ को टोपूके साथ सन्धि है. तब तुम्हें पृथ्वी पर जा तपस्या करके प्रायश्चित्त करना हो जाने पर यह अंगरेजोंके अधिकारमें पाया। पड़ेगा। इस तरह शाप दिये जाने पर पार्वतो गङ्गाके मन्दिरके बाहर को दोवार पर चार गोपुर है। मन्दिर किनारे तपस्या करने लगों । बहुत समय व्यतीत होने पर सात प्रकोष्ठ में विभक्त है। सामने का प्रकोष्ठ उत्सव. प्राकाशवाणो हा, 'काञ्चीपुरमें जाकर तपस्या करो।' मण्डप कहलाता है। इसकपोछे शेषक: प्रकोष्ठ है। इस पर पार्वती काञ्चोपुरमें जाकर तपस्या करने लगी। ये प्रकोष्ठ क्रमशः छोटे और अन्धकारमय है। उस स्थान पर बहुत समय बीत चुकने पर पुनः देववाणी- प्रत्येक प्रकोष्ठक दरवाजे पर प्रकाश देने को प्रको के पादेशानुसार पार्वती अरुणाचल पर जा तपस्या वावस्था की गई है । दिनके समय भी यहाँ रोशनो दो करने लगी। इस समय पार्वतीने पञ्चाग्नि तप पारम्भ जाती है। अन्तिम प्रकोष्ठ सबसे छोटा पोर अन्धकार- किया। कुछ काल के बाद महादेवजोने संतुष्ट हो कर मय है । म घरका नाम मूलस्थान है और यहाँ देवता पर्वत-शिखरके ऊपर ज्योतिर्मयरूपम उन्हें दर्शन दिया। को स्थावरमूर्ति विराजित है। घरमें वाथुवा प्रकाश पाय तोका प्रायश्चित्त समाज हो गया। हर-पार्य तो उसो भनेको अच्छी व्यवस्था नहीं है। हम पन्धकारको दूर मूत्ति में अरुणाचल पर हो रहने लगे। अरुणाचल पर करने के लिये हमेगा रोशनोको जरूरत पड़ती है। मूल- प्रभो महादेव और महादेवोको मूर्ति है। महादेव तिरु- स्थानमें पूजकके मिवा दूभरेको जानका अधिकार नहीं ववमलयेखर वा अरुणाचलेखरके नामसे भोर महादेवो है। यात्रो लोग मूर्ति देखने के लिये दरवाजे पर खड़े अपोत कुचाम्बल वा जबमाल नामसे अभिहित हैं। यहाँ रहते है और पूजक भोतर जाकर उनके प्रतिनिधि-स्वरूप विश्व श्खर, सुब्रह्मण्य, चण्डिकखर प्रभृति देवमूर्ति अष्टोत्तरशत वा सहस्र नाम पाठ हारा पर्चना करते योको पृथक् पृथक् पूजा होती है। दाक्षिणात्य के विधा- हैं। नारियल, केला, पान और सुपारो नैवेद्य दिया जाता नामुमार अरुणाचले खरको भो दो मुर्तिया एक है। पोछे पूजक कपूर जला कर वेद-पाठ करते हुये स्थावरमुर्ति और दूसरो उत्सवमूस्ति । मूलमृति पत्थर पारतो उतारते है और उसो प्रकाशमें यावो लोग देवता को और उत्सव-मूर्ति धातुको बनी हुई हैं। अरुणा- दर्शन करते हैं। कानिकको शक तोयासे पूर्णिमा तक चलेखर किस ममयको प्रतिमा हैं उसका कोई निश्चय परुणाचलेखरका वार्षिक उत्सव होता है, जिसे ब्रह्मोत्सव नहीं है, किन्तु अनुमान किया जाता है यह चोलराजानी- कहते हैं। उत्सवक अन्तिम दिनमें जनताको अधिक के समयमें स्थापित हुई है। मन्दिर भुरभुरा (Granite) जमाव होता है। इस उत्सवके उपलक्ष्यम प्रायः पत्थरका बना हुआ है। ६ । ७ लाख मनुष्थ एकत्र होते हैं। डेपुटि मजिष्ट्रेट मन्दिरके चारों ओर प्राङ्गण हे पोर प्राङ्गणके चारों शान्तिरक्षा के लिये इममें पहुंचते हैं। पुलिम रन्सपेकर तरफ दुरारोह पत्थरको दोवार । दक्षिण प्रदेशके स्वयं मन्दिर हार पर रखवालो करते हैं। मण्डपको युद्धादिक समय ये समस्त उच्च प्राचोर वैष्ठित देव तक एक बगल में साहबोंके पासन देखे जाते हैं। छत