पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/५५९

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तिमिर-बिहानी रोगा अथवा नीलवर्ष बसे खेतवर्ण, शोषितसे रा होने पर विदीर्ण, पवस वा न माल म पड़तो।। वर्ष, पौर सविपातसे विचित्रवर्ण होता है। (प्रभुत चिकित्सित ७०) ____ परिम्नायिरोगमें दृष्टिमण्डलमें रतजन्य परुणवर्ण कुपित दोषके वाहय पटल में रहने दृष्टि बिलकुल बन्द महलाकार स्य लका उत्पन होता है अथवा समूचा हो जाती है. इसोको कोई निमिर पर कोई लिङ्गनाथ मण्डल कुच्छ नोलवर्ण हो जाता है। इस रोगमें कभी कहते हैं। यह तमाम तिमिररोग यदि पचिरजात कभी पापसे पाप.दोष क्षय हो कर दृष्टि की शक्ति बढ़ हो तो रोगोको सब पदार्थ चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, वियत, जाती है। अम्नि पादिवा सेज पौर सुवर्णादि दीलियोल पदार्थोके इसके सिवा पित्तविदग्धदृष्टि, कफविदग धदृष्टि, समान दीपने लगते हैं। सौ मिनाय रोगको मोशिका रावान्धता, धूमदर्शी, खजाय, नकुलान्धता पौर गम्भो. पौर काच काते है । (भावप्र.) इन दोनों के लक्षण पहले रक ये सात प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं। दृष्टिके स्थानमें ही लिख चुके है। विशेष विवरण चक्षुरोग और रोगमें देखें। दुष्टपित्तके रहनेसे वह स्थान पोला हो जाता है, तथा तिमिरनु ( R Y०) तिमिरं नुदति खणयति गुद- सभी वस्त पोलो नजर पाती है। से पित्तविदग्धदृष्टि लिए। १ यं । ( बृहत्म ५५ ) (वि.) २ पवार कहते हैं। दोषके खतोय पटलमें रहनेमे रोगीको दिनके नाशक, बधकारका नाश करनेवाला। समय नहीं सूझता, रातको सूझता है। दृष्टि जब श्रेष्मासे तिमिरभिद (स.पु.) तिमिर भिनत्ति मिद-लिए । विदग्ध होती है, तब सभी पदार्थ मफेद दोग्य पड़ते है। · सूर्य । ( वि. ) २ पन्धकारको नाश करनेवाला। सोनों पटलों में यदि थोड़ा थोड़ा दोष रहे, तो नला. तिमिररिपु (सं. पु. ) तिमिरस्य रिपुः, इ-सत् । १ सूर्य। वता तुरत उत्पन्न होती है। इसमें दिनके समय सूर्य (वि० २ तिमिरनाथक, पंधकार दूर करनेवाला। किरणमें कफको पल्पना के कारण दृष्टिशक्ति प्रकट होतो तिमिरहर (स.पु.) १सूर्य । २ दीपक। है। शोक, ज्वर, परिश्रम और मस्तक अभिताप हारा सिमिरा (म.सो.) हरिद्रा, हल्दी। दृष्टिके अमित हो जाने पर सभी पदार्थ धनवर्ण देखे तिमिरारि । स. पु. ) तिमिरस परिः, तत् । १ व्यं । जाते हैं । रमको धमदर्शी कहते हैं। इसमें दिनके समय २ अन्धकारका शत्रु । बारीक वस्तु बहुत कठिनतासे मजर पातो है। तिमिरावलि (मो .) अन्धकारका समूह। रातको चैत्यगुण हारा पित्तको अल्पताके कारण वे सब तिमिरि (म• पु०) तिमि मसा, तिमि नामको महली। पदार्थ देखे जाते है, इसे खजाड य कहते हैं। जिस तिमिरिन (स.पु.) तिमिर अस्वस्थ तिमिर-णिनि । रोगमें दृष्टिके दोषाभिभूत हो जानसे नकुलको दृष्टिके १ पन्धकारकारो, पंधकार करनेवाला । २ पन्द्रगोप समान विद्य तकी पामा निकलतो है, उसे नकुलान्ध कहते कोट, जुगन । है। वायु कत्तक दृष्टि स्थानके विरूप होनेपर भो उसका तिमिर्च (पु.) दौरत। अभ्यन्तर भाग बहुत गम्भार भावसे प्रकाशित होता है। तिमिष (स'• पु० तिम रसक । १ ग्राम्य कर्कटी, ककड़ी, इन सब लोगों के सिवा दृष्टिस्थानमें सनिमित्त और पनि फूट । २ कुष्माण्ड, कुम्हड़ा । ३ नाटान, तरबून । मित्त नामक दो प्रकारके और भी वाद्यरोग हैं । मस्तकः तिमी (सं० स्रो०) तिमि एषोदरादित्वात् डोप । १ तिमि के अभितापसे दृष्टि हत होने पर सनिमित्त होता है। मन्सा । २ दचको एक कन्या । यह कम्पको सो पौर यह रोग पभियन्द निदशन हारा जाना जाता है। तिमिङ्गलोकी माता थो। देवता, ऋषि, गन्धर्व, महोरग वा ज्योतिः पथवा दोषि- तिमोर (स.पु.) वृक्षभेद, एक पड़का नाम । मान् पदार्थो के सन्दर्य नसे दृष्टिगत होने पर : निमित्त तिमुहानी (हिं खो०) १ वह स्थान जा तोन पोर तीन लिनाश होतास रोगमै दृष्टि मष्ट विमस वयं- राहगई हो। २ वह स्थान जहाँ तीन पोरसे नदियां पा मधिको तरह दोषपड़ती।ष्टिनारा अभिधात हस कर मिली।