तन्त्रयुक्ति-तत्रापिन् २० पूर्व पक्ष-दम शब्दका पर्व मन। २२ विकल्यनल्यापर्थबोधक है। यथा बहुत या २१ विधान-दमका पर्थ पर्णयक्रमसे निर्देश है। थोड़े या प्रपाल कान्तमें या समयके बीत जाने पर भोजन यथा उदररोग ८ प्रकारका निर्देश कर पोछे पर्याय नम- करनेका नाम विषमान है। से प्रकारकी चिकित्सा भी बनाई गई है। ३४ प य चार--शिषको बुधिको तीक्ष्णसा, मध्यता २२ अनुमत परमतका प्रबिध नहीं करनेको पनु पोर निजष्टताके भेटमे या किसी दूमो कारणसे एकही मत कहते हैं । यथा किमो किसोके मतसे वस्ति चिकि- अध्याय एक हो विषयक भिव भिम प्रकार में दो तीन माका एकमात्र उपकरण है। बार कहनेको प्रत्युच्चार कहते है। २३ व्याख्यान-इम शब्दका अर्थ व्याख्या करना। ५ मनव-म शब्दका पर्थ उत्पत्तिका कारण २४ संशय-इस शब्दका अर्थ यह अथवा वह है। यथा दोषका प्रकोप रोगका कारण है। इस तरह संदेहसूचक है। ____३६ उद्धार-सूत्र के अनुवतिको उद्धार कहते हैं। २५ प्रतीतावेक्षण-पूर्वोक्ता के पुनः उल्लेख करनेको यथा कटु कहनेसे मरिचादि, सिता कहनेसे नोम पादि. अतोतावेक्षण करते हैं। यथा सूत्रस्थानको विधि शोणि- को समझना चाहिये। यह तन्वयुक्ति प्रत्येक कार्य में त य अध्यायमें रक्तपित्त रोगके कई एक गूढ़ तत्व हैं। प्रयोजनोय है। (सुश्रुत ५०) २६ अमागतावेक्षण वक्ष्यमागके वर्तमान उल्लेख को तन्त्रवाय (मं० पु०) तन्वं वपति बप-प्रगा । सन्तुवाय, अनागतावेक्षण कहते हैं। यथा ज्वर-परिच्छेदमें कहा साँसो। २ लूसा, मकड़ो। भया है कि वमन विरेचनका विषय कल्पस्थान में देखो। सम्बवाय (म. पु०) तन्वं वयति वेपण । सन्तवाय, २७ खमंज्ञा-जो संज्ञा विपो दूसरे शास्त्र में व्यवहार ताँतो। यह महार जाति है। मणिय मके पोरस पोर नहीं होतो उसे स्वसंज्ञा कहते हैं। यथा चतुष्पद शब्दका मणिकारीके गर्भ मे इस जातिको उत्पत्ति हुई। रस अयं आयुर्वेदमं वेद्य, रोगी, परिचारक और पोषध है। जातिको उत्पत्तिके विषयमें पराशरके साथ भगवान् २८ उद्य-जो वाक्यमें नहीं रह कर भो समझमें पा मनुका मतभेद देखा जाता है। मनुके मतमे क्षत्रियाणोके जाता है, उसे उच्च कहते है। यथा दोष दोषान्तर हारा गर्भ तथा वैश्य औरममे दम जातिको उत्पत्ति हो। पाहत रहने पर रोगका निगा य करना कठिन होता है, २ लूता, मकड़ो। पाधारे घञ्।३ तन्त्र, ताँत । यहाँ पर यहो बात क्विपी है कि केवल वायुका लक्षण तन्वम स्था ( म० स्त्री० ) तम्बस्य संस्था, ६-तत् । राज्य टेख कर वायुको चिकित्सा करनेसे कभी कभी भ्रान्न भो शासनप्रणालो । होना पड़ता है। तन्त्रम स्थिति ( म० स्रो०) तन्वस्थ मस्थितिः, तत् । २८ समुच्चय-समुच्चय शब्द इत्यादि बोधक है। यथा गज्यशासनप्रणालो। दाडिम प्रभृति अलफल है। यहाँ पर पाँवले इत्यादि. तन्वस्वान्द (म पु०) ज्योतिषशास्त्रका एक अंग। इसमें को भी अम्ल समझना चाहिये। गणितके हारा ग्रहोंकी गति पादिका निरूपण होता है, ___३० निदर्शन-निदर्शन शब्दका अर्थ उपमा है। गणितज्योतिष। यथा जससे मृपिगड जिस तरह प्रक्लिल हो जाता है, तनहोम ( स० पु०) तन्त्रण होमः, ३-तत् सन्त्रणा मूग पौर उर्दसे व्रण भो उसी तरह प्रक्लिप्त होता है। मतसे अनुष्ठित होम, वह होम जो तन्त्रशास्त्र मतसे ____३१ निर्वचन-किसी बात का निखय करके कहने हो । होम देखो। को निर्वचन कहते । यथा कुष्ठनाशक द्रव्यों में खदिर तन्वा ( स० स्त्रो०) सन्धि भावे प-टाप । पल्पनिद्रा. (खेर) ही प्रधान है। थोड़ी नौंद। २२ सबियोग-स वाक्यका अर्थ शासनवाब है। सम्यायिन् (म० पु.) तन्त्र कालचक एति गति णिनि । जे माना भोजी बनी या कम खावो। कालचक्रगामी सूर्यादि। Vol. IX. 67
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