पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तां पूजयेत् प्रयत्नेन रक्तचन्दनपुष्पकैः । पाययेत् आसवं यनात स्वयं चापि निवेत्ततः। पूजयित्वा प्रयत्नेन तस्यांगे पीठदेवताम ॥ सकारंच मकारच लकारेण समन्वितम् । आवाह्य विधिवद्भक्त्या जपेन्मत्रमनन्यधीः । जपेदष्टोत्तरशततासां कर्णे पृषक पृथक । शूल संपूजयेद्यत्नात्तीक्ष्ण परमदुर्लभम् ॥ तमभ्यर्च प्रयत्नेन कुला वक्षसि साधकः । ओं महाशूल' नमस्तुभ्य सर्वदैत्यान्तकारिणे । अंगन्यासयुत देवि जपेन्मत्रमनग्यधी:॥ अस्त्रद्वय ममुच्चार्य तत: शुलेन वक्षसि । एतस्मिन् समये देवी रतिमिच्छति सा यदा। उद्यमे नैव सा काली आयाति च न संशयः । तदा ता रमयेत् मन्त्री पीडा न जायते यथा ॥ अवश्य जायते साक्षात् ममैव वचन यथा ॥" शनैरधरपान च शनैर्वक्षोजमर्दनम् । पूर्वोल्लिखित उपायमे यदि देवोका माक्षात् न हो, ! शनैर्गुदनिवेश च शेनेरालिंगन प्रिये ॥ तो नौका लौह हारा शून बनावे और उसमें यत्नप व क यद्यत्र जायते पीडा तदा सिद्धिविनाशिनी । देवोको कल्पना करें। रक्तचन्दन और रक्तपुष्य हाग एवं प्रयोगेतु काली साक्षात भवति नान्यथा ॥ भकिके साथ उनकी और पोठ-दं वताओंको पूजा करें। इति ते कथित देवि गुत्थात् गुह्यतरं पाम् । पीछे विधिपूर्वक अनन्यचित्तमे मन्त्र जपे। अनन्तर भक्तिहीन क्रियाहीन विधिहीन च यद्भवेत् ॥ शूनको पूजा करें "ॐ महाशूल" इस मन्त्रके हारा प्रणाम तदासिद्धि विलम्वेन निष्फल नैव जायते । करें। इस प्रकार के प्रयोगसे कालो निश्चय दर्शन देंगी। अविश्वासो न कर्तव्य आलस्यं नैव पार्वति ॥ "अथवा कालिकाबीज शत संलिख्य यत्नतः । सर्वेषां मन्त्रवर्याणां सारमुर्द्धत्य पार्वति । पूर्वपत्र कुकुमेन मन्त्र स्वर्णशलाकया ॥ दुग्धमध्ये यथा सर्पि काष्ठ मध्ये यथा नलः ॥ विलिव्य भुवि देवेशि तत्र कान्तां ममानयेत। तथा समुद्धृतः सारो देवि नास्त्यत्र संशयः । तद्गात्रे पूजयेद्देवीः नानाभरणमंयुताम् ॥ स्वयं सिद्धाहि ते मन्त्राः सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ निशीथे तु जपेन्मन्त्रमेकांते कांतया सह । इति ते कथितं देवि गोपनीय प्रयत्नतः।" जपेन्मत्र सहस तु ततः साक्षात् भवेध्रुवम् ॥ यह तन्त्रशास्त्र अत्यन्त गुद्यतम है, विशेषत: गुरुके इति ते कथित देवि गद्याद्गुह्य र परम्। उपदं शर्क विना इमको कोई भी प्रक्रिया नहीं जानो जा अप्रकाश्य मिदं देवि गोपयेत् मातृजारवत् ॥" मकती। रमनिये इमका विम्त त वृत्तान्त लिखना पर्व कथित उपायमे माक्षात् न होने पर कुछ म और दु:माध्य है। खण शलाकाक नागमो कालिकाबीज लिखे । लिख इस प्रकारका वीराचार पूजा और मिहि-प्रक्रियायें और भो बहुत सरहकी हैं, जिनको मख्या नहीं हो मकतो। करम पर कान्ता बुल्ला कर बैठावें और उसके शरीरमें देवाको पूजा करें। निर्जन स्थानमें निशोथरात्रिको इन प्रक्रियाको करने पर भी किमो किसोको सिद्धि होर्नमें विलम्ब होता है। किसो किसोको तो जन्म कान्तार्क माथ अनन्यचित्त हो कर हजार मन्त्र जप भर तक सिद्धि नहीं होतो। इमका कारण यह है, कि कर। ऐसा करनेसे निश्चय ही देवीका माक्षात् होगा। कोई भक्तिहोन, कोई क्रियाहीन और कोई विधिहोन यह अतिशय गुह्यतम और अप्रकाश्य है. यह मन्त्र मार हो कर प.जा करते हैं। सदगुरुके उपदेशानुमार विधि- आरवत् गोपनीय है। पूर्व क अनुष्ठान करने पर शीघ्र सिद्धि प्राव होता है। "श्मशानकालिकायास्तु कलायामुपवेशनम। उमका गुह्यतम वृत्तान्त सदगुरुकं बिना दूमरा कोई कलास्थाने महेशानि कुमारीयाग उच्यते । भो नहौं बता सकता। इसलिये इसको पढ़नसे हृदयम अष्टवषोंतु या बाला द्वादशाधो महेश्वरि । नाना तरह भाव उदित होते हैं। किन्तु वास्तविक स्थायेतु चतुःार्श्व मिष्टभोजनभोजिता ॥ तत्त्वार्थ निरूपण गुरूपदेशक बिना किसी तरह भी पूजयेत् परया भकथा स्व'मुंजीत साधकः । नहीं हो सकता।