पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२२८

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२२४ उचित है। कुमिकासबके थे पटल में लिखा है- मुद्राश्च मैथुनश्चापि विनानैव प्रपूजयेत् ॥ "भावश्च त्रिविधो देवि दिव्यवीरशुक्रमात् । स्त्रीभगं पूजनाधारः स्वर्णरूप्यात्मक: कुर विश्वश्च देवतारूपं भावयेत् कुलसुन्दरि । अभावे सर्वव्यागामनुकल्प कलौ युगे। स्त्रीमयच जगन् सर्व पुरुष शिवरूपिनम् । अथवा परमेशानि मानसं सर्वमाचरेत् ॥ अभदे चिन्तयेद् यस्तु स एव देवतात्मकः । स्नातन्तु मानमें प्रोक्त वैदिको मानस: सदा । नित्यम्नानं नित्यदानं त्रिसन्नाय च जपार्थनम् । यत्र भुक्त्वा महापूजा मानसं भोजनन्तु तत् ॥ निर्मलं वसनं देवि परिधान समाचरेत् । वकीयां परकीयां वा मानमन्तु रमेत स्त्रियं । वेदशास्त्र ज्ञानं गुगै देये तथैव च । मानसं मद्यमांसादि स्वीकुर्याद् माधकोनमः ॥ मन्त्रे चैव दृढनान पितृदेवार्चनं तथा । स्वम्भूकुसुमं तद्वन्मान समुगनरेत् । वलिवश्य तथा श्राद नित्यकार्य शुचिम्मिने। मानम भगरोमादिमानसं भगपूजनम् ॥ शत्रु मित्रसम देवि चिन्तयेनु महेश्वरि । सर्वन्तु मानमें कुर्यात्तेन मिद्धयति साधकः । अनचव महेशानि सर्वेषां परिवर्जयेत् । न कौ प्रकृताचार: संश शत्मनि नैव सः। गुगेर महेशानि भोक्तव्य' सर्वसिद्धगे। मानसेने व भावेन सर्वसिद्धिमु पालभेत् ॥" कदयंत्र महेशानि निष्ठुरै परिवर्जयेत् । दिय और वोर ये दो महाभाव हैं, परभाव अधम सत्यम कथयेटु देवि न मिथ्या न ब.दावन । है। वैषणव भी पशभावर पुजा करनो चाहिये। शक्ति- केवल दिव्यभावेन पूजयेत् परमेश्ररीम् ॥" मनमें पशुभाव भोतिजनक है। दिव्य और वोग्भावमें भाव तीन प्रकारके हैं-दिय, वोर और पशु ! हे प्रभेद महो है। बोरभाव अति उद्दत है। मभावों में कुलसन्दरि ! यह विश्व देवतारूप है, ममम्त जगत् स्त्रीमय श्रेष्ठतान और दिव्य वोरभाव का विषय कहा जाता है। और पुरुष शिव है, इस प्रकार अभेदभावमे जो चिन्ता शक्ति वा मद्य, मत्स्य, मांस. मुद्रा और मैथ नके विना • करता है, वह देवतात्मक वा दिव्य है। उमको चाहिये पूजा नही को जातो। स्त्री-भग पूजाका आधार है-स्वर्ण कि, वर नित्यमान, नित्यदान, त्रिमध्या अन्नपूजा, ओर रोप्यात्मक कुश। कलियुगमें सर्व द्रश्य के प्रभावमें निमल वमन परिधान, वेदगास्त्र, गुरु और देवतामें दृढ़- अनुकल्प है अथवा मन ही मन सब कार्य करनेका जान, मन और पिटदेवपूजामें अटल विश्वाम, वन्नि मार्ग है। मानपत्रान, मवदा मानम वैदिक कागड़ जहाँ दाम, थाह और नित्य कार्य, शत्रु मित्रमें ममज्ञान, सबका महापूजाभोग वहीं मानमभोजन और मन ही मन स्वकीया प्रवपरित्याग, सर्व मिद्धि के लिए गुरुका अबभोजन, वा परकीया नारोसे रमण करें। साधकोष्ठ मन हो कदर्य और निष्ठ रताचरगा त्याग तथा टिव्यभावसे मवेदा मम मद्यमांमादि ग्रहण करें और तद्रूप स्वयम्भ कुसुम भी परमेझगेकी पूजा करे। उमको मर्वदा मन्य बोलना उपाचार दें, तथा मन ही मन भग-गेम प्रादिको चिन्ता चाहिये, कभी झट न' बोले । पिच्छिन्नातंत्र के १०३ पटलमें और भग पूजा करें। एम प्रकारसे मन हो मनमें सब लिखा है- कार्य करना चाहिये । कलिकालमें निश्चय हो वास्तविक "दिव्यवीगेमहागावावधमः पशुभावकः । आचार नहीं है। इस प्रकारमे मानमभावोंके हारा हो बैष्णवः पशुभावेन पूजयेत् परमेश्वरि ॥ मर्व सिद्धि प्राप्त होता है। शक्तिमन्त्रे वराहे पशुभातो भयानकः । पशभावका लक्षण इससे पहले ही लिखा जा चुका दिव्यवरिमहेशानि जायते सिद्भित्तमा ॥ है। रुद्रयामलमें ( उत्तरखण्ड में ) लिखा है। दिव्ये वीरे न भेदोऽस्ति मेदो वीरो महोद्धतः। "दुर्गापूजा विष्णुपूजा विषपूजाच नित्यशः । दिव्यवीरौ प्रवक्ष्यामि सर्वभाषोत्तमौ मतौ। अवश्यं हि य: करोति स पशुरुत्तमः स्मृतः ॥ विना शनि पूजास्ति मस्यमांस विना प्रिये। . केवलं शिवपूजा चमकरोति बपापकर ,