पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२०१

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जो लोग पढ़ना नहीं जानते वे भी इसको दूसरीसे सुनने सत्यत्रो (ो० ) सत्य यस बानो.।"१ लि में पुण्य समझते है। | पत्री, वंशपनी नामको घास। २ बदलो पुष, केलेका इस ग्रन्दमें दश अध्याय है। उनमें पहिले अध्याय- पेड़। में नय प्रमाण पौर निक्षेपका वर्णन है। दूसरे अध्याय सत्पद (म.को. ) तदिति पद, कर्मधा० । १ विणका में जीवके प्रौपथमिक पादि ५३ भाव, उसके बस स्थावर परम पद, निर्वाण। मसारी मुक्त प्रादि भेद, मन्माईन प्रादि जन्मप्रकार तत्वमसि श्वेतकेतो इत्यादिवाक्यस्य तरवस्य आत्मादि" और योनि पादिका विस्टत वर्णन है। तोमर अध्याय में (श्रुति ) हे शतकेतो! बहो सत्य है. वही पाला एक अधोलोक, नरकावास पोर मध्यालोकर्क समुद्र हीप पर्वत माव सत्व है. इसीलिये उम पात्माको तत्पद समझना नदो पादिका वर्णन है। चौथेमें अवं लोक स्वर्ग ज्यो- चाहिये । “तत्पदं दर्शित येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः।" आहिक तिवन उनके विमान, प्रायु, ज्ञान प्रभृतिका वर्णन है तस ) २ अखत्यवक्ष। पांचवें अध्यायमें जोव, पुल, धर्म ( द्रव्यविशेष ) अधर्म नत्यदलक्षार्थ (म. पु० ) सत्पदस्य सध्योऽर्थः, 4-सत् द्रष्य, पाकाश और काल इन छहद्रव्योंका वैज्ञानिक ढङ्गमे चित्खरूप ब्रह्म। वर्णन है। छठेमें जीवके साथ मन वचन काय की क्रिया तत्पदवाच ( स० वि० ) सत्पदस्य वाय:, ६-तत् । मात्र, से शामावरणादि कर्मों का किस प्रकार प्राश्रय (प्रागमन) : श्रुतिप्रतिपाद्य एकमात्र बन हो सत्पदवाया है। होता है, कोन काम करनेमे क्या फल होता है इत्यादि । तत्पदवायार्थ (म पु० ) तत्पदवाचस्व पर्य:-तत्। बातोका विस्तार है। सातवेंमें मुनि और श्रावकके ब्रह्मके वाण्या में प्रज्ञानादिसमूह उपस्थित सर्वत्रत्व पाचारका वर्णन है। पाठवेमें जामावरणादि कोको प्रभृति विशिष्टिचैतन्य पोर अनु पहित चैतन्य ये तीन स्थिति, प्रकृति अनभाग और प्रदेशोंका कथन है। नवम- । तत्पदवायके पर्थ है। में कोको नष्ट करदेने में कारण गुमि ममिति अनुप्रेक्षा तत्यदार्थ (स० पु०) सत्पदस्य समस्यादिवाक्यस्य अर्थः, परीषहजय ध्यान पादिका वर्णन है और दशमें मोक्ष- सत्। जगत्कारण परमात्मा, मष्टिकर्ता । बझी एक तत्वका विशेष व्याख्यान है । जैनधर्म और उमास्वाति देखो। मात्र जगत्का कारण है। ब्रह्म देखो। तत्वानसन्धान ( म० की. ) तत्वस्य अनुसन्धान, ६-तत्। तत्पदाविध (स० वि०) तत्पदस्व सत्त्वमस्यादिवावमास्थ प्रकृत अवस्थाका अन्वेषण। पविधा यव, बहुव्री. । सत्पदवाथ, बद्र। तत्वानुसन्धायो (म त्रि.) तत्त्व अनु-सधा णिनि । जो तत्पर ( स० वि०) तत् परम उत्तम यस्य, बनो। मत्वानुसम्मान करता हो। १ तहत, उससे सम्बन्ध रखनेवाला । २ सहामा, उसमें तत्वावधान (स० लो०) सत्त्वस्य अवधान', ६-तत्। निरी लगा हुमा । तस्मात् पर, ५-तत्। ३ सबा, उन्धत. जो क्षण, जाँच पडताल, देखरेख कोई काम करने के लिये तैयार हो। ४ निविष्ट, या. तत्वावधायक : म पु० ) सत्त्वस्य अवधायकः, ६-तत्। वान्। ५ निपुण, दक्ष। सतक पतुर, होशियार । तत्वावधानकारी, निरीक्षक; वह जी देखरेख करता हो। (पु.) ७ एक निमेषका तीसवाँ भाग। सत्वावधारक ( स० पु. ) तत्त्वस्य अवधारकः. ६ तत्। तत्परता ( स• स्त्री० ) तत्पर तल-टाप । १ सटता, खरूपपरिज्ञाता, वह जो किसो विषयका तत्वनिरूपण मुस्तै दो। २ दक्षता, निपुणता। यह पाया। करता हो। ४ सतकता, होशियारो। तत्त्वावधारणा (सलो . ) सत्वस्य पवधारणा, तत्। तत्परायण (स.वि.) तदेव परंपयन, यस्य, बहुजी०। तत्त्वनिर्णय, यथार्थ बोध । १ तदासत, उसमें लगा हुषा ।२ सत्प्रधान, उसमें श्रेष्ठ। सत्वावबोध ( स० पु. ) तत्त्वस्य पवबोधः, तत्। तत्व. सत्य रुष ( पु.) १ समामविशेष, एक प्रकारका पानातरखान देखेंगे। समास । स समासमें उत्तरपदकी प्रधानता नीती, Vol.IX.50