पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/९९

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१७ वातापिद्विट्-पाताश्य. : गिस्त्यका प्रणाममन्त-- - ।। वृक्ष, रेड़। २ शतमूली। ३ पुत्रदानी मामकी लता।४

..तापिक्षितो.येन पानापिञ्च निराकृतः । ' . ! शेफालिका, निर्गुण्डी । ५ यवानी, अजवायन ! ६ भागी,
समुद्रा शेोषिते। येन समेऽगस्त्यः प्रसीदतु ॥” , भारंगो। ७ स्नुहो, धूबर ८ विड़ा, वायविडङ्ग। शूरण,

. २ स्थूल शरीर । "यातापे पोव इन्द्रव' (अफ् ११८७८) जिमीकन्द, बोल । १० भल्लातक, भिलावां । ११ जतुका, यातापिदिट् (सं० पु०) धातापि द्वेटोति द्विप पियप। जन्तुका लता। १२ शतावरी, सतायर । १३ श्वेत निर्गुण्डी,

  • अगस्त्य मुनि । '

सफेद सिंहास। १४ पोत लोध, पोली लोध । १५ शुक्ल घातापिन् (सं० पुष यातापि नामक भसुरं । रसोन, सफेद लहसुन । १६ तिलक वृक्ष । १७ पृथुशिव- घाताधिपुर--प्राचीन चालुषयराज पुलिकेशीको राजधानी श्योणक, श्वेत एरण्ड, सफेद रें। १८ नील वृक्ष, नील- triज कल इसे बादामी कहते हैं। बादामी शब्द देखो। | का पौधा, वातापिसूदन (सं० पु०), वातादि सूदते इति सूद ल्यु। वातारि (सं० पु०) मुकरद्धि और प्रणाधिकारोगमें मोषध विशेष प्रस्तुतप्रणालो-पारा १भाग, गाधक २ भाग, पातापिइन् ("सं० पु. ) धातापि हन्ति हेम क्विए। त्रिफला ३ भाग, चितामूल ४ भाग, गुग्गुल ५भाग, इन्हें अगस्त्य ": :. . डीके तेल के साथ घोर कर गोली वनाघे। अनुपान- च ताप्य (सं० वि०) १. वायुपूर्ण । (पु.) उसक. सोठ मोर के मूलका काढ़ा या अदरकका रस और जिल।. ३.सोमा (मृ.१९३५ सांपण) तिलतैल है। इस औषधका मेवन करा कर रोगीकी,पोट वाताभियन्द ( स०१०) वायुजनित नेत्ररोग, पायुफे पर रेंडीका तेल लगा स्वेद प्रदान करे। पीछे विरेचन कारण, मांशका मानां। इस रोग मांखों में सूई चुमने । होनेसे स्निग्ध भोर उष्ण द्रष्य भोजन कराये । इससे घृद्धि को-लो वेदना होती और उसे शीतल अधुनाव नधा | रोग प्रशमित होता है। रोगीके शिरमें शूल और रोमाञ्च होता है। ' ' . (भैषज्यरत्ना. मुकाद्ध मोर प्रणाधि०)

(भावमा क्षेत्ररोगाधिक ) मेरेरोग देखो।। | धातारिगुग्गुलु (सं० पु० ) १ पातण्याधि रोगाधिकारमें

याताम्र (स० को.) वायुसे सन्ताड़ित मेघाला . : . गोपविशेष | २ मामघात शेषाधिकारमें औषधविशेष । घाताम (संपु०)बादाम . .. , . प्रस्तुतप्रणालो-डोका तेल, गन्धक, गुग्गुल और पातामोदा (स'. स्त्री०:) पातन प्रसूत आमोदो यस्या।। त्रिफला-इन्हें एक साथ पीस उचित मात्रामें एक कस्तूरो। . ..... : ... ....... ... मास तक लगातार प्रोतकालमें उष्णजल के साथ सेवन घाताय.( सलो ) पत्र, पेड़का पता। . ... करनेसे भामपात, फरिशूल और पङ्गता आदि नाना पातायन (.सं.क्लो..) यांतस्य अयन गमनागमनमा।| प्रकारके रोग शान्त होते हैं। १गवाक्ष, भरोषा। (पुं० ) वातस्पेव अयनं गतिर्यस्य ।। (मपन्यरत्ना०मामवातरोगाधि) Rोरक, घोड़ा । (त्रिका०) ३ अनिल के गोनसे उत्पन। चाताप्य (सं० वि० ) यात द्वारा पाने योग्य । 'मक १०११३८ सूक्त मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। ४ श्लके गोत्रो (ऋग भाष्य सायण ॥१२॥८ ) त्पन्न । ये. १०।१८६ सूतके मन्नाष्टा ऋषि थे।५ वातारितण्डुला (सं० स्त्री० ) बिड़ला। (राजनि०) (रामायण के अनुसार एक नगरका नाम । घोतोसी (सं० स्त्री०) वातस्य आलो यर । पात्या, पायु । वातायनीय (सं० पु०) वातायन-प्रवर्तिस घेदकी एक | वाताश (सं० पु.) यातमनाति पेश धम्। पयनाश, • शाखा :...... . . .. वायुका पीना। ... .. वातायु (सं० पु०) पातमयते इति अय वाहुल कात् उण । पातागिन् ( सं० लि.) घातमश्नाति अश-णिनि । हरिण हिरन । पवनाशिन, हवा पो पर रहनेवाला! . . (पातारि:(सं० पु. ) वातस्य यातरोगस्य सि.परएंड । याताश्व (सं० पु०) यात इव शीघ्रगो आश्वः । कुलोन