पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८६७

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वोर ९५६ गुण ट्रेभ्यद्वारा युगपत् व्यापनेच्छा, सदाके लिये रहनेको । अर्थात् परशुरामने सारी पृथियोके अकपट भावसे दान - चाह। | किया था। यहां उनके त्यागमें उत्साह स्थायी भाव बीर (सलो०) अज (स्थावितचिंचोकि उण १११३) । और ब्राह्मणको सम्प्रदान आलम्पनविभाव और सत्यादि - रति रक अजेवीमावः घोर अववार को सिगिया उदोपन विभाव है। सर्व खत्यागादि द्वारा अनुमा- नामक विष । २ नड़, मरकर । ३ फालो मिर्ग। ४ पुष्कर- । यित और हर्णधृति मादि सञ्चारित भाव द्वारा पुष्टिप्राप्त मूल । ५ काश्चिक, काजी । ६ उशोर, खस आरक, . हो कर दानयोरत्यको प्राप्त हुए थे। भालूबुखारा । ८ मिन्दुर । लोह, लेहा । : धर्मवीर युधिष्ठिर- , १० शालपणीं। ___ राज्य, धन, देह, भार्या, माता तथा पुन और ३६ (पु०) वीरयतोनि वीर यिकान्ती बघायच, यद्वा : लोकमें जो कुछ मेरा आयत्त है, वे सर्वदा धर्म के निमित्त विशेषेण ईरयति दुरीकरोति शत न पिर इगुपधात् क। निरूपित है।' यहां युधिष्ठिरफ धर्म में उत्साह और उप्स. अथवा जति क्षिपनि शतम् अजरक अजेवीं भायः।। के लिये उनके त्यागादि मालम्वन विभाषादि द्वारा ११ शीर्गविशिष्ट, यह जो साहसी गौर बलयान । धर्मवीरत्य सूचित हुआ है। ' पर्याय-शूर, विक्रान्त, गम्भोर, तपस्वी । (जटाघर )। युद्धवीर भगवान् रामचन्द्र- , १२ पुत्र, लड़का। (शृक ५।२०।४) १३ पति और 'भो लङ्क श्वर, जनकमा सीताको तुम लौटा दो, मैं -पुत्र । अवोरा; पतिपुत्रहीना नारीको अवोरा कहते । स्वयं प्रार्थना कर रहा। पांकि, तुम्हारी मति मारी - हैं। १४ दनायु दैत्यपुत्र । (मारत १।६।६३ ) १५ गई, तुम नीतिका स्मरण करे, इस समय मैंने कुछ भी जिन । १६ नट (हेम) १७,विष्णु । (विष्णुसहसनाम ) नहीं किया, हम यदि सीताको लौटा न दो, तो स्वर- १८ शृङ्गारादि आठ प्रकार के रसके अन्तर्गत एक रस। दुरण मादिक कण्ठरक्त द्वारा पङ्किल ये मेरे गा तुम्हे

इस रसमें नायक उत्तम प्रकृति, उत्साह, स्थायिभाव सह्य नहीं करेंगे अर्थात् युद्ध में तुमको मार डालेंगे।'

है। इसका अधिष्ठात-देवता महेन्द्र दें, सुवर्ण वर्ण, विजेत.। यहां मी रामके युद्ध में उत्साह और भीति प्रदर्शन व्यादि पालम्बन विभाव, विजयादि चेष्टा उद्दीपन विभाय, आदि घाफ्य मालम्बन विमायादि द्वारा युद्धवारत्य - सहायाग्वेषणादि अनुभाव, धृति, मति, गर्ग, स्मृति / सूनित हुआ है। 'तर्क और रोमाञ्च ये सब सञ्चारिभाष हैं। दान, धर्म, ___ दयायोर जीमूतवाहन- 'युद्ध और दया भादिके मेदसे ये चार प्रकार है अर्थात् ! __ हे गरुड़ ! अब भी शिराओंके मुम्बसे खून टपक दानवीर, धर्मवोर, युद्धवीर और दयावीर। रहा है। मेरो देहमें अब भी मांस है, तब भी तुम्हारा घोररस वर्णन करनेमें नायक अति उत्तम समावका भक्षणनित परितोप देख नही रहा है। पयों तम होगा। उसके दान, युद्ध, दया या,धर्म में उत्साह यह भक्षणसे विरत हो रहे हो! यहां अपनो ऐसी दुर्दशा स्थायिभाव सवर्दा रहेगा । विजेतव्यादि आलम्बन होने पर भी परदुःखहरणके लिये उत्साह पूर्णमानामें ग्रिभाव और उसको चेप्टाउद्दीपन विभाय तथा उसके । विद्यमान है। यह उत्साह हो, स्थायिभाव है, पूर्वोक्त निमित्त सदायादिका अम्धेपण अर्थात् युद्ध में सैन्यसंग्रह. रूपसे मालम्बन आदिमाव स्थिर करने होंगे। शान और धर्ममें उन द्रव्योंका संग्रह और दयामें त्याग । ...भयानक और शान्तरसफे साथ वीररमका विरोध है, - शीलता आदि विद्यमान रहेंगे। , भयानक , और शान्तरसके वर्णनप्रसङ्गमें यीररसका दामवीर परशुराम,- . वर्णन नहीं करना चाहिये। ऐसा होने से इसका विरोध सप्तसमुद्रधेष्टित पृथ्वीको भकपट मायसे दान तक होता है। .