पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८१२

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७१० -विसर्प पिदाही और 'अम्लद्रभ्यादि भोजन द्वारा पित्तमधित , सार, मूर्छा; दाइ, मोह, ज्वर, तमझ, अरुचि, अस्थिभेद, सौर प्रकुपित हो कर रक्तादि दोषोंको दृषितं और धम संधिमेव, तृष्णा, अपरिपाक और अङ्गमेशादि उपद्रवस नियोंके पूर्ण कर देता है तथा पोछे पित्तजनित विसर्प अभिभूत होता है। यह विसर्प जिस जिस स्थानमें रोग उत्पादन करता है। उस समय ज्वर, तृष्णा, मूर्छा, रिसर्पण करता है, वह स्थान पुझी हुई : मागके यमि, गरुचि, भङ्गभेद, स्वंद, अतह, प्रलाप शिरो. अंगारको तरह काला अथया अत्यन्त लाल हो जाता वेदना, दोनों नेत्रकी आकुलता, अनिद्रा, अरति, भ्रम, है। यहां जलन होती है और फोड़े निकल आते हैं। शीतल वायु और शीतल जलमें अत्यमिलाप, मलमूत्र जल्द फैल जानेके कारण यह विसर्प मर्मस्थान हरिद्रावर्ण और शीतदर्शन ये सघ लक्षण उपस्थित होते (हृदय) में अनुसरण करता है। इससे मर्म जय उप- है। शरीरके जिस स्थानमे विसर्प यिसर्पण करता है, यह सप्त होता, तव पायु अति बलवान हे समो अगाँको स्थान पोला, नीला, काला घा लाल हो जाता है। वहां भगायत् पीड़ासे अत्यत पीड़ित कर डालती है, उस सूजन पड़ता है और काली का लाल फुसियां निकलती समय ज्ञान नहीं रहता, हिपका, श्वास और निदानांश है। पे सप फुसियां जल्द पक जाती हैं। उनसे पित्ता- होता है, रोगी यत्रणके मारे छटपटाता है। पोछे नुरूप वर्णका नाय होता है तथा यहां जलन देतो अति क्लिष्ट हो कर सो जाता है। कोई कोई बड़ी मुश्किलसे होशमें माता है और प्राण खो बैठता है। यह विसर्ग साध्य है। : कफज विसर्प लक्षण-स्वादु, अम्ल, लषण, कर्दमाख्य विसर्प-अपने अपने प्रकोपनके कारण स्निग्ध और गुरुपाक अग्नभोजन तथा दिधानिद्रा द्वारा कफ सश्चित और प्रकुपित हो कर रक्तादि दूष्यचतुष्टप. कफ और पित्त प्रकुपित और दलवान् दे कर शरीरके को दूपित तथा समस्त अङ्गों में विसर्पण कर यह रोग किसो एक स्थानमें कर्दमाक्ष्य विमर्म रोग उत्पादित उत्पादन करता है। उस समय शीतज्यर, गातगुरुता, करता है। इस.विसमें शीतज्वर, शिरपीड़ा, स्तमित्य, निद्रा, त'द्रा, गरुचि, अपरिपाक, मुखमें मधुर रसका भङ्गावसाद, निद्रा, तन्द्रा, गन प, प्रलाप, अग्निमांद्य, गनुभव, मुखमाप, मि, आलस्य, स्तमित्य, अग्निमांद्य दौर्बल्य, अस्थिभेद, मूर्छा, पिपासा, स्रोत समूहको . और दोनोस्य उपस्थित होता है । शरीरकै जिस स्थानमें लिप्तता, इन्द्रियोंकी जड़ता, अपपय मलभेद, अङ्गविक्षेप, विसर्प विसर्पण करता है, यह स्थान स्फीत, पाण्डु या अङ्गमद, मरति, भीर भौत्सुक्य ये सब लक्षण दिखाई देते हैं। यह विसर्प प्रायः आमाशयसे उत्पन्न होता है, .. भनतिरिक्त वर्णका, चिकना, स्पर्शशक्तिहीन, स्तब्ध, किन्तु आलसो हो कर भामाशय के किसी एक स्थल गुरु और अल्पवेदनायुक्त होता है। ये फोड़े कृच्छ - पाक, चिरकारी, घनत्यक् और उपलेपविशिष्ट होते हैं में ठहरता है । यह स्थान लाल, पोला वा पाण्टुवर्णका, पोडकाकोर्ण, मेचकाम (कृष्णवर्ण), मलिन, स्निग्ध, और फूट जाने पर उनसे सफेद पिच्छिल ततुविशिष्ट बहुउणाधित, गुय, स्तिमितवेदन, शोविशिष्ट, गम्भीर . दुर्गन्ध गाढ़ा नाय हमेशा निकलता रहता है। उन पाक, नायरहित और शीघ्र क्लेदयुक्त होता है। उस फोड़ोंके ऊपर सप्त फुसियां निकलती हैं। इस यिसर्प स्थानका मांस धीरे धीरे स्विग्न, लिन्न और पूतियुक्त रोगर्म रोगीका त्यक , नत्र, नयन, यदन, सूख और होता है। इस विसर्गम वेदना कम होती है, किन्तु , मल श्वेतवर्णका हो जाता है। इससे संशा और स्मृति जाती रहती है। विसर्पाकांत घातपैत्तिक माग्नेविस-अपने अपने कारणसे | स्थान रगड्नेसे अवकीर्ण होता है, दवानेसे कीचड़का . घायु और पित्त अत्यंत फूपित तथा वलयांन् हो कर तरह बैठ जाता है, उस स्थानसे मांस सड़ फर गिरता . शरीरमे शीघ्र ही आग्नेय विसर्ग रोंग उत्पादन करता | है। शिरा और स्नायु बाहर निकल आती है. तथा है। इस रोगमें रोगी अपने सारे शरीरको मानो देवीप्यमान क्षत स्थानसे मुर्दे को-सी गंध निकलती है। यह विसर्प- गङ्गाराग्नि द्वारा मामार्ण समझता है नथा वमि, अति. रोग भी असाध्य है।