पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७६०

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६६८ विषमज्वर माम सतत और मांसाधित विषमज्वरको अन्येद्य एक में रहता और बीच के दो दिन सम्पूर्णरूपसे ज्वर रहना है। कहते हैं। तृतीयक नामक विषमज्वरमे दो धातुको | घातवलासक-यह ज्वर शाथरोगाकान्त व्यक्तिके उप. और चातुर्थक ज्वर अस्थि तथा मज धातुका आश्रय | द्रवस्वरूप नित्य मन्द मन्द होता है। इससे रोगो रक्ष ले कर उत्पन्न होता है। यह चातर्शक ज्वर मारात्मक | और स्तब्धाङ्ग होता है अर्थात् उसको अङ्गशैथिल्य रोग है और प्लीहा, यकृत् आदि बहुतेरे रोग उत्पन्न उत्पन्न होता है । प्रलेपक-यह.ज्यर नित्य मान्ध अवस्था. करता है। में होता है । यह पसीना और शरीरके भारीपनके कारण जो ज्वर सप्ताह, दशाह, या द्वादशाह काल तक एकादि. महरहः शरीरके वोचमें मानो प्रलिप्त अर्थात् निवद्ध होता कमसे एक रूपसे अविच्छेदी अवस्थामें रह कर अन्तमें | है। इससे रोगी शोत अनुभव करता है। यमाके विच्छेद हो जाता है, उसका नाम सन्तत विषमज्वर है। रोगियोंको हो यह ज्वर होता है। जो दिनरातमें दो बार अर्थात् दिनमें एक धार और रातमें | ___ विदग्धपक अग्न रसमें अर्थात् प्रदुष्ट आहाररसमें प्रदू एक बार आता है, उसको सततक या सतत ज्वर कहते | पित पित्त.और कफ शरीरमें व्यवस्थित भावसं रह कर एक हैं। बोलनालमें इसका नाम छौकालीन ज्वर है। तरहफे विषमज्यरको उत्पत्ति करता है । इस ज्वरमें व्यय अन्येा एक ज्वर दिनरातमें एक वार मात्र होता है। स्थित भावसे पित्त और कफका अवस्थानहेतु अद्धमारीः तृतीयक ज्वर तीन दिनों के बाद और चातुर्थक ज्वर चार श्वराकार या नरसिंदाकार रोगीको देहका अर्थाश गरम दिनके बाद एक बार होता है। तथा दूसरा अर्द्धश शीतल रहता है। इसका कारण यह उक्त तृतीयक ज्वर पातले मिक, पातपैत्तिक तथा कफ- है, कि जिस अशिम पित्तका प्रादुर्भाव है, वहां गरम पैत्तिक भेदसे तीन प्रकारका होता है। ज्यर आनेके समय तथा जिस अ शर्म श्लेष्माका प्रादुर्भाव है, वहां शैत्य पीठमें वेदना अनुभव होनेसे समझना होगा, कि यह | का अनुभव होता है। दूसरे एक विषमज्वरमें पित्त और वातश्लेप्मेजन्य तृतीयक ज्यर है। निफस्थानमें ) कफ पूर्वोक्त रूपसे शरीरके विभिन्न स्थानमें अवस्थान- (कमर, जन मूल आदि तीन सन्धिस्थलमें) घेदनाके साथ पूर्वक दाह-शीत आदि उत्पन्न करता है अर्थात् जव जो तृतीयक ज्वर होता है, वह कफपित्तजनित है। फिर पित्त-कोष्ठाश्रित रहता है, तब श्लेष्मा हाथ पैरमें रहती जिस तृतीयकमें पहले शिरमें दर्द उत्पन्न होता है, यह | है। इस तरह, जब पित्त हाथ पैरमें रहता है, तब वातपिनज है। इसी तरह चातुर्शकज्यर भी वातिक और श्लेष्मा काष्ठमें अवस्थान करती है । सुतरां-पूर्वोक्त निय. लैष्मिक भेदसे दो प्रकारका है। शिरमें वेदनायुक्त मानुसार जव, जहां श्लेष्मा रहती है, तब वहां (कायमें पातिक और जंघावयमें वेदना उत्पन्न कर लोमिक या हाथ पैर आदिमें ) शैत्य और जब पित्त इन स्थानों में चातुर्थकज्वरका उद्भव होता है। रहता है, तब उन स्थानोंमें उष्णता विद्यमान रहती है। सिवा सततक, इसके मन्येधु एक, तृतीयक और चातु- इस ज्यरमें जद त्वक स्थित वायु और श्लेष्मा ये' र्थकविपर्याय मौर वातवलासक, प्रलेपक, दाहशीतादि कई दोनों पहले, शीत उत्पन्न कर. ज्वर प्रकाशित करता है। विषमज्वरका उल्लेख है । नीचे क्रमशः उनके लक्षण आदि | और इनके वेगका किञ्चित् उपशम होनेके बाद पित्त द्वारा वर्णित हैं। सततकविपर्याय --दिनरा में केवल दो । दाह उपस्थित होती है, तव 'शीतादि' और जब इस तरह यार बिच्छेद हो कर सारा दिनरात ज्वरभोग करता है। त्वक स्थ पित्त पहले अत्यन्त दाह. उत्पन्न कर ज्यरको अन्येद्य कविपर्याय-दिनरात भरमें एक बारमान विच्छेद अभिव्यक्त करता है और पीछे इस पित्तके किञ्चित् प्रश. हो कर सारा दिनरात ज्वर भोग करता है। तृतीयक मित होनेसे वायु और श्लेष्मा दोनोंसे शोतका उद्भध विपर्यय-यह ज्वर आधन्त दो दिन विच्छेद अवस्थामें | होता है, तब इसको 'दादादि विपमज्वर' कहते हैं। इन रहता है, वोचमें, सेयल एक दिन, दिखाई देता है। दाहादि और शीतादि ग्धरम दाहपूर्व ज्वर ही विषम चातुर्थक-विपर्यय-यह आद्यन्त दो दिन विच्छेद अवस्था- क्लेशदायक और कृच्छसाध्यतम है। ...