पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७५६

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विप राक्षसने जो विषकन्या प्रस्तुत को, चाणक्यने उससे , मधु, पहेड़े की छाल, तुलसी, लाक्षारस तथा कुत्ते और पर्वतका संहार किया था। कपिला गायका पित्त इन्हें एक साथ पोस कर पाद्य. विपकृत (सं० वि०) १ विष भयोगसे प्रस्तुत। २ विष- यन्त्र और पताकादिमें लेप देना होता है। इसके दर्शन, मिश्रित । ३ विषसांसृष्ट। श्रवण, आघ्राणादि द्वारा विप नष्ट हो सकता है अर्थात् विपकृमि ( स० पु०) विपजात कृमि, यह कोड़ा जो काठ विषघ्न औपधादिको ऐसे स्थान रखना होगा जिससे के बीच में उत्पन्न होता है। उस पर दृष्टि हमेशा पड़ती रहे वा उसका आघ्राण मिलता विषक्त (20 स्त्री० ) वि-सनजक्त। आसक्त, संलग्न । रहे अथवा तत्ससृष्ट शब्द सुनाई दे, इमसे विषका विपगन्धक (स० पु०) हस्त सुगन्ध तृणविशेष, एक | प्रभाव बहुत दूर हो सकता है (मत्स्यपु० १९२ १०) प्रकारको घास जिसमें भीनी भीनी गधं होती है। | विपना (स. स्त्री० ) अतिविषा, अतीस। । विषगन्धा (सं० स्त्रो० ) कृष्णागोकों, कालो अपराजिता । विपटिनका (स'. स्त्री. ) श्येतकिणिहोवृक्ष, सफेद भा. विपगिरि (सं.पु.) धिप-पर्वत ।' इस पर उत्पन्न होने. मागं या चिवड़ा। वाले वृक्ष और पौधे यादि जहरीले होते हैं। विपनी ( म० स्रो०) १ हिलमोचिका या हिलंच नामक ( अथव'४।६७ सायण) साग। २ इन्द्रवाणो, गोपालककी। ३ घनवर्षा विपनधि (सं० पु०) मृणालपर्व, कमलको नालकी गांठ । रिका, बनतुलसी। ४ धूपाभेद । ५ भूम्यामलको, विपध (सं० त्रि०) विषनाशक, विषका नाश करनेवाला। भुई आंधला । ६ रक्तपुनर्नया, लाल गदहपूरना । विपघा (सं० स्त्री०) गुलञ्च, गुड़ च। ७ हरिद्रा, हल्दी। ८ वृश्चिकालोलता। महाकर। विषघात ( सं० पु०) विष-इन-धन । विपनाशक। १० पोतवर्ण देवदालो, पोतघोपा नामकी लता। विषघातक ( स० वि०) विपनाशक, जिससे विपका ११ काठकदली, फठकेला। १२ श्वेतअपामार्ग, सफेद । प्रभाव दूर होता हो। चिचड़ा। १३ कटकी । १४ रास्ता । १५ देवदालो । विषघाती (सं० वि०) विप-इन-णिनि। विपनाशक, विषङ्ग (स० पु०) वि.सन्ज-घम्। संलिप्त, लगा हुआ। विषका प्रभाव दूर करनेवाला । (पु.)२ शिरीषवृक्ष, | विषङ्गिन ( स०नि० ) प्रलिप्त, लोपा पोता हुआ । सिरिसका पेड़। विषन (स'० पु०) विष इन्तीति विप हन-र । १ गिरीष- विपचक (पु०) चकोर पक्षी । वृक्ष, सिरिसका पेड़। २ दुरालभाविशेष, जवासा । विपचक्रक ( पु०) विपवक्र । ३ विभीतक, बहेड़ा। ४ चम्पकक्षा विपजल ( सं० ली० ) विषमय जल, विषैला पानी । ५ भूकदम्य । ६ गन्धतुलसी। ७ तण्मुलोय शाक (त्रि.) ८ विष. विपजिह (सं० पु० ) देवताइयश!. नाशक। विपजुष्ट ( सं० त्रि०) विषमिश्रित, जहर मिला हुआ। मनुसंहितामें लिखा है, कि विपन रत्नौपधादि | विषज्वर (सं० पु०) १ ज्वरविशेष । विपके संसर्गसे उत्पन्न हमेशा धारण करना उचित है ; क्योंकि दैवयश गथया | होनेके कारण इसको आगुन्लक ज्वर कहते हैं। इस , शत्र द्वारा यदि विष शरीरमें प्रविष्ट हो जाये, तो इसके ज्यरमें दाह होता है, भोजनको ओर रुचि नहीं होती; रहनेसे कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। (मनु १२१८) | प्यास यहुत लगती और रोगी मूर्छित हो जाता है। ' ____ मत्स्यपुराणमें विपनरत्नादि धारण तथा भौपधादि | विषवत् प्राणनाशको ज्वरो यस्य । २ भैसा। ध्यवहारका विषय इस प्रकार लिखा है-जतुका, मरकत | विपणि ( स० ० ) सर्पभेद, एक प्रकारका साप । आदि मणि अथवा जीवसे उत्पन्न कोई मो मणि तथा विपएड ( स० क्ली० ) मृणाल, कमलको नाल । . सभी प्रकार रत्नादिको हाथ धारण करनेसे विष नष्ट | विषण्ण (संत्रि०) वि.सद-क्त । विपादप्राप्त, दुःखित, . होता है। रेणुका, जटामांसी, मंजिष्ठा, हरिद्रा, मुलेठो, खिन्न, जिसे शोक या रंज हो! ...