पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६८९

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विशिष्टातियाद ६०१. भिन्न हैं और म अमिन्न, कुछ मिन्न और कुछ । शास्त्रीय सभो व्यवहार निवृत्त होते हैं। उन लोगोंका भिन्न हैं। इस कारण ब्रह्म-एक, और भनेक दोनों यह सिद्धान्त भी सङ्गत नहीं है, क्योंकि ब्रह्मात्मभाव- हैं। उनमें से जब एकत्वांशका मान होता है, तब मोक्ष वोधक ध्रुतिमें अवस्थाविशेषका उल्लेख नहीं है । यावहार और जब भेदांशका ज्ञान होता है, सब लौकिक जीयका अस'सारि ब्रह्ममेड सनातन है अर्थात् सर्वदा और वैदिक यावदार सिद्ध होता है। विद्यमान है, यहो श्रुतिसे मालूम होता है। शु तिमें यह शैवाचार्यों तथा भवतयादियों का कहना है, कि । सिद्धको तरह निर्दिष्ट हुआ है। शु तिवाक्य अवस्था- विशिष्टादतमत जो कहा गया यह नितांत असङ्गत है। विशेष अभिप्रायकी कलाना करना निष्प्रयोजन है। 'तस्य. क्योंकि दो.यस्तु: एक ;हो समय परस्पर-मिग्न और मसि' इस श्रुतियोधित जोषका ब्रह्मभाव किसी प्रकार अभिन्न नहीं हो सकती। इस हा वजा यह है, कि भेद प्रयत्न या चेष्टासाध्यारमें निर्दिष्ट नहीं होना । 'असि' और अमेद परस्पर विरोधों हैं। अमेह भेदका अभाव । इस पद द्वारा केवल स्वतःसिद्ध मर्शका प्रसापन किया है। मेद और अमेदके.समावका एक समय एक पस्तुमें गया है। रहना मसम्मर है । फिर कार्य कारण, यदि ममिन्न हो, मतपत्र जो कहते हैं, कि जीरका ब्रह्ममाय ज्ञान- ता जगन् प्रमले अभिग्न हो सकता है। किंतु कार्य मौर कर्मसमुद्ययसाध्य है, उनका सिद्धान्त भी मन नहीं । कारण के अभिन्नसे जिम प्रकार मृतिकारूपमें घर शरा ! क्योंकि, छान्दोग्य उपनिपमें लिखा है, कि कोई वादिका तथा सुवर्णकामें कुण्डल मुकुटदिका पकटर | आदमी ज़ब चारके सन्देह.पर राजपुरुष द्वारा पकड़ा कहा जाता है उमी प्रकार घट शरावादि और कुण्ठल जाता है और जब यह चोरीका दोष स्वीकार नहीं करता, मुरुरादिरूपमें भी पकस्य .पयों नहीं कहा जाता.? तव शास्त्रानुसार तप्त पाशु द्वारा उसकी परीक्षा की अर्थात् घट शरावादि और कुएडल मुकादिम्पमें जिस | जाती है । यथार्थ चार होने पर उसका शरीर जलने प्रकार नानात्य: कहा जाता है, उस.प्रकार उसो-रूपमै लगता है और राजपुरुष उसे पकड़ लेता है। क्योंकि पकस्य भी क्यों नहीं कहा जाता १ .क्योंकि.मृत्तिका उमने असत्य कहा है। चोरो करके भी उसने कहा और घटगरायादि तथा सुरण धौर कुण्डल मुकुटादिके है,कि मैं चोर नहीं। यह, मन्ताभिमन्धि हो उसके मभिन्न होनेसे मृत्तिका सुवर्णादिका धर्म पकत्व घर दग्धनका हेतु है। शरायादि और कुपडलमुकुटादिमें तथा घटशरावादि और .. फिर चोरी नहीं करनेसे तप्त परशु द्वारा वह कुण्डल मुकुटाविका धमे नानात्य मन्सुवर्णादिमें अयश्य | नहीं जलता और राजपुरुष उसे छोड़ देता है। है, इसे अस्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि कार्य और क्योंकि यह सत्यामिरुत है अर्थात् उसने सत्य वचन कारण जब एक है, तब एकस्य और नानात्वधर्म भी कहा है। सत्याभिसंधि ही उसको मुक्तिका कारण है। अवश्य कार्या और कारणगत होगा। इस स्वतःसिद्ध उसी प्रकार नानारमदशी अन्नामिसन्ध होनेके कारण विषयमें भोर मधिक कहना अनावश्यक है। . यद्ध तथा एकत्वदर्शी सत्याभिसन्ध होनेके कारण मुक्त • किसी किसी.आचार्यने इस, दोपको, हटाने के लिये होता है। इससे स्पष्ट मालूम होता है, कि एकत्व सत्य अन्य प्रकारका सिद्धान्त किया है। उनका कहना है, है, नानात्व मिथ्या है। क्योंकि पकत्व तथा नानात्व कि.मेद और ममेव अवस्थाभेदमें अवस्थित हैं। अर्थात् | यदि दोनों ही सत्य हो, तो नानात्वदशो अन्ताभिरुन्ध यस्यामेदमें एकत्व और नानात्व दोनों ही सत्य हैं।। नहीं हो सकता। संसारावस्थामें नानाय तथा माझावस्था एकत्य है। फिर एकस्य गोर नानात्व दोनों के सत्य होने पर अर्थात् स'सारावस्थामै जीव और ग्रह मिन्न है तथा एकत्य झान द्वारा नानात्य निपत्तित नहीं हो सकता। लौकिक और शास्त्रीय व्ययदार सत्य है 1, मोझावस्था पयोंकि यथार्थ हान अयथार्थ ज्ञानका तथा उस कार्यका जोच और ब्रह्म अभिन्न है तथा उस समय लौकिक और | निवर्स क हो सकता है, यथार्थ पा सत्य .यस्तुका । vol.xxl. 151 .....:, :