पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६७२

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५८२ विवाह-विधि अनुराधा, मघा, हस्ता और स्वाति ये सभी नक्षत्र । विवाहकं लिये विहित लग्न-कन्या, तुला, मिथुन विवाहके लिये शुभ हैं। किन्तु चित्रा, श्रवणा, धनिष्ठा और धनुका पूर्वाद्ध काल विवाहमें प्रशस्त है। धनुलग्नका और अश्विनी नक्षन गापदुकालमें या यजुर्वेदीय विवाहमें | अपरार्द्ध निन्दित है। निन्द्य लग्नका द्विपदांश अर्थात् समझना होगा। मया, मूला और रेवती नक्षत्र में एक कन्या, तुला और मिथुनका नवांश विवाह के लिये विशेषता है, कि मधा और मूला नक्षत्रका भाद्य पाद और | प्रशस्त है। विधाहमें जो लग्न हो, उस लग्नके सानवें, " रेवती नक्षत्रका चतुर्थपाद अवश्य छोड़ देना चाहिये। | आठवे और दश स्थानमें यदि शभग्रह न हो, दूसरे, . कारण इस मुहूर्तमें विवाह करनेसे प्रापनाश होता है। तीसरे और ग्यारहवें स्थानमें चन्द्र हो और तीसरे, . ___ सिवा इसके यामिनयुतवेध, यामिलवेध, दशयोगभङ्ग ग्यारहवें', छठवें और आठवें स्थानमें पापग्रह हो, शुक्र ... और सप्तशलाकामे विवाह न करना चाहिये। छठये और मङ्गल आठवे में न हों, तो वह लग्न शुभ भीर : यामित्रगुतवेध-चन्द्र पापग्रहके सप्तमस्थित होनेसे | प्रशस्त है। चंद्र पापमध्यगत . और रघि, मङ्गल, शनि'. . यामित्रवेध और पापयुक्त होनेसे युतवेध होता है अर्थात् शुक्रयुत होने पर उस लग्नका परित्याग कर देना कर्म कालीन राशिके सातवें यदि रवि, शनि और मङ्गाल ! चाहिये। हों, तो यह यामिनयेध होता है। ___ लग्नके इस दोपके परिहार करने के लिये सुतहिवुक युतयामित्रमें प्रतिप्रसव भी देखा जाता है-'द्र | 'योगका विधान है। सुतहिवुक योग होने पर लग्नके यदि बुध राशिमें हों, अपने घर में या पूर्ण हो अथवा ये दोष सभी विनष्ट हो जाते हैं। जिस लग्नमें विघाव मित्र गृह और शुभप्रहके गृहमें हो या शुभग्रह द्वारा देखे होता है, उस समय यदि लग्नमें चौथे स्थानमे, पांचवे । जाते हों, तो यामितवेधका दोष नहीं होता। और नये में गृहस्पति या शुक हों, तो सुतहिवुक पोग ____ दशयोगभङ्ग-कर्मकालमें सूर्ययुक्त नक्षत्र गौर कर्म होता है। इस योगमें विवाद होने पर सभी देोप नष्ट योग्य नक्षत्र एकत्र कर यदि २७से अधिक हो, तो उनमें | होते और सुखवृद्धि हेती है। . २७ छोड़ कर जो बाको घचे, उनमें यदि १५, ६, ४, ५, १०, ____ यदि उत्तम लग्न आदि नहीं मिले, तो शास्त्र में १६, १८ या २० सख्या हो, तो 'दशपागभङ्ग होता है। गोधूलिका विधान है । कितु घिहित लग्न रहनेसे . यह दशपोगभङ्ग विवाह के लिये विशेष निषिद्ध है। कभी भी गोधूलिमें विवाह करना न चाहिये। जिस सप्तशलाका-उत्तर दक्षिण सात रेखाये और पूर्व समय पश्चिमीय दिशा जरा लाल होती है, आकाशमें दो . . पश्चिम सात रेखायें खोचनी होंगी। पोछे उत्तर मोर- एक तारे दिखलाई देने लगते हैं, उसो समयको 'गोधूलि को प्रथम रेखासे कृत्तिकादि करके अभिजित ले कर २८ | येला' कहते हैं । विवाहमें गोधूलि तीन तरहसे निहिए .. रेखायें होगी। जिस नक्षत्र में विवाह होगा, उसमें अथवा हुई है। जैसे- हेमन्त और शिशिरकालमें सूर्य मन्द किरण ' . उस खाके सामनेवाले नक्षत्रमें चन्द्र के सिवा अन्य कोई , हो गोलाकृति और चक्ष गोचर होनेसे, वसन्त और प्रीप्म- ' भी नक्षत्र रहे, तो सप्तशलाकावेध होता है। उत्तरापाढ़ा- कालमें अर्द्ध अस्तमित होने पर और वर्षा तथा शरत् का अन्त १५ दण्ड ओर श्रवणाका पहला ४ दण्ड अभि ऋतुसूर्यफे, अस्त होने पर गोधूलि होती है। जिस जित, अभिजितके साथ रोहिणीका, कृत्तिकाके साथ समय विशुद्ध लग्न न मिले, उस समय गोधूलि शुभ गीर श्रयणाका और मृगशिराके साथ उत्तराषाढाका वेध | अन्यथा अशुभ समझना। होता है। इत्यादि फारसे वेध स्थिर कर लेना चाहिये। गोधूलिमें और भी एक विशेषता यह है, कि अप्रहायणः । 'इस सप्तेशलाका विवाह सम्पूर्णरूपसे वर्जित है। और माघ महीनेमें गोधूलिमें विवाद होने पर वैधण्य, . इसमें विवाद होने पर विवाहिता स्त्री विवाहके रंगोन किन्तु फाल्गुन, पैशाख, ज्येष्ठ और आपाढ़ महानमें जो . घनसे ही पतिके मुखमें मनलस्पर्श कराती है। अर्थात् / विवाह होता है, ये सप-शुम हैं। शनि और बृहस्पतिवार तरत खामीको मृत्यु हो जाती है। के दिवादण्डमें गोधूलि निषिद्ध है। -