पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६६९

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विवाहना-विवाह विधि हे देवि! माजसे तुम्हारा हृदय मेरा हो और मेरा । पिता नहीं करता, यह राजनित शोणित पान करता हृदय तुम्हारा है।।' हिन्दु दम्पतीका बंधन उस पाश्चात्य | है। राजमार्तण्डने कहा है, कि विवाह पूर्व कनाके समाजका Marriage contract नहीं है यह चिर | रजोदर्शन हो जाने पर पिता, बड़े माता और माता तीनों जीवनका अविच्छेध दृढ़तम बन्धन है। इसका मन नरकमें जाते हैं और उस कन्याका रजोरक्त पीते ही प्रमाण है। हैं । जो ब्राह्मण मदमत्त हो कर ऐसी कनप्राका विवाहना (हि. क्ली) ध्याहना देखो। विवाह करता है, उसके साथ बैठ कर भोजन विधाहपरह (सं०) विवाहका वाघ, ध्याहफे समयका - करना तथा उससे घोलना भी उचित नहों। उसको 'बाजा। नृपलीपति समझना चाहिये। इन वचनों द्वारा मालूम विवाह-विधि (सं.स्त्री०) विवाहस्य विधिः। विवाह होता है, कि कन्याका रजस्खला हो जाने पर विवाह करने- को विधि, विवाहका विधान | शास्त्रों में विवाहको विधि से पिता आदि पापके भागी होते हैं। अतः रजापति- निर्दिष्ट है। तदनुसार विवाद्या या अविवाह कना से पहले ही कनाका विवाह कर देना चाहिये। स्थिर कर ज्योतिपोक्त शुभाशुभ दिन देख कर विवाहका ! • पम-"कन्या द्वादशपर्याणि याप्रदत्ता रहे वसेत् । दिन स्थिर करना चाहिये। ब्रह्महत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वरयेत् स्वयम् ॥ मनुफे मतानुसार- । मङ्किरा--प्राप्त तु द्वादशे वर्षे यदा कन्या न दीयते । "अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा तु रोहिणी। तदा तस्यास्तु कन्यायाः पिता पिपति शोणितम् ।। दशमे कन्यका प्रोका यत रजसता॥ राजमार्तण्ड-सम्माप्त द्वादशे वर्षे कन्यो जो न प्रयच्छति । तस्मात् संवत्सरे पूर्व दशमे कन्यका बुधैः। । मासि मासि रजस्तस्याः पिता पिनति शोणितम् ।। प्रदाता प्रयत्नेन न दोषः फालदोषजः ॥ माता चैव पिता चैव ज्येष्ठभ्राता तमेव च । आठ वर्षको कनयाका नाम गौरी और नौ घर्षको । प्रयस्ते नरक यान्ति दृष्ट्वा कन्यो रजस्वलाम् ॥ कनमा रोहिणी कहलाती है। दश वर्षकी लड़की होनेसे , यस्तु तो विषहेत् कन्या ब्राह्मणो मदमोहितः । उसे कनाका कहते हैं । - इसके बादसे बालिका रजा भसम्माष्यो ह्यक्तेियः स शेयो वृपल्लीपतिः ॥ स्पला गिनी जाती हैं। अतएव इससे पहले ही पालिका अलि और कश्यप कहते हैं- का विवाह कर देना चाहिये। दश वर्षसे अधिक उम्र | पितुर्गे हे च या कन्या रजःपश्यत्पसंस्कृता । को कनप्राशा विवाद करने पर कालदोपादिका विचार भू पाहत्या पितु तस्याः सा कन्या वृपनी स्मृता। नहीं किया जाता। दश वर्षके बाद कनाओं की ऋतुको यस्तु तां परयेत् कन्यो ब्राह्मणो शानदुर्वसः। माशङ्का कर शास्त्रकारोंने कालदोपादिमें भी विवादको ___अभद्धयमपादक्तेयं तं विद्यात् वृषसोपतिम् ॥" ध्ययम्या दी है। इन सब बचनोंसे मालूम होता है, कि ऋतुमती विवाहकालातीत होनेसे दोष। दश वर्शके भीतर ही कनाको यत्नपूर्वक दान दे। | कनाका विवाह पापजनक है, अतः ऋतु होने से पहले ही देना चाहिये। मलमास आदि कालदोष उसमें प्रति- विवाह कर देना चाहिये। हां मनुसंहितामें यह पात बन्धक नहीं होते। यम-स्मृति में लिखा है, कि यदि दिखाई देती है, कि यद्यपि ऋतुमती होनेसे मरण तक कनमा वारह वर्ष तक अविवाहित अवस्था पिताके घर. प्यारी हो पिताके घर पडो रहे ; किंतु अपात्रको कन्या में रह जाये, तो उसके पिता ब्रह्महत्याकं पापके भागी । | न देनी चाहिये। होते हैं। ऐसे स्थान में यह कना स्वयंवर बढ़ कर। "काममामरणाचिठेद् गृहे कन्यत्त मत्यपि । अपनी वियाह कर सकती है। अङ्गिराने कहा है कि ! नव वना प्रयच्छत गुणहानाय काहाचत ।" धारद वर्षको हो जाने पर भो कनाका विवाह जो विवाहका प्रशस्त काल-स्मृतिसार नामक अन्यमे