पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६२२

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विवासयित विवाह विवासयित (लि) गिर्यासनकारयिता, जो निर्वा-। अपेक्षा ऊंचे दरजेके जीवाणुओंमें या जोवोंमें इस तरह सन कराते हैं। बहुतेरे नियम दिखाई देते हैं। इनके वंश-विस्तार के लिये . विवासस् ( स० वि०) वियंसन, विवस्त्र, उलङ्ग, नंगा। प्रकृतिने स्त्रोस योगका विधान नहीं किया है। जीवं जव विवासित (स' नि०) १ निर्वासित। २ जिसे उलङ्गः | सृष्टिके ऊचेसे ऊचे सोपान पर चढ़ जाता है, तब इनमें किया गया हो। . . . . . . स्त्री-पुरुषका प्रभेद दिखाई देता है। इसी अवस्थामें स्त्री. धिवास्थ ( स० नि०) विवासनयोग्य, जिसे निर्वासित पुरुष सयोगसे वंशविस्तार प्रक्रिया साधित होतो हैं। किया जा सके। | जीवके हृदय में ब्राह्मो शक्ति और वैष्णवो शक्तिने इसो' विवाह (सं० पु. ) विशिष्ट वहनम् वि-वह-धम् । 'उदाह, | कारण अत्यन्त वलवतो प्रवृत्ति दे रखो है । अचे दरजेके हारपरिप्रह, शादी, ध्याह । पर्याय--उपयम, परिणय, उ7.! प्राणिमात्रमें ही स्त्री-पुरुष स योगवासना दिखाई देतो याम, पाणिपीड़न, दारकर्म, करप्रद, पाणिप्रहण, निवेश, है । और तो क्या-पशुपक्षियों में भी स्त्री-पुरुष सयोगको पाणिकरण। उद्वाह तथा पाणिग्रहणमें पार्शष्य है। लयती स्पृहा और दोनोंको आसक्ति तथा प्रीति यथेष्ट- इस विषय पर पूर्णरूपसे विचार आगे किया गया है। रूपसे दिखाई पड़ती है। जीव जितने ही सृष्टिके ऊंचे ___ सृष्टिप्रवाहका संरक्षण करना प्रकृतिका प्रधानतम सोपान पर चढ़ जाने हैं, उतने ही पुरुषों में स्त्रोप्रहणको नियम है। जड और चेतन इन दोनों पदार्थो से हो वंश- वासना बलवतो हो जाती हैं। पशुपक्षियों में भी स्त्री- विस्तारका विशाल प्रयास बहुत दिनोंसे परिलक्षित होता ग्रहण करने के निमित्त विविध चेटाये दिखाई देती हैं। आ रहा है। रुद्रशक्तिसे सृष्ट पदार्थोका सहार होता है, पशु भी स्त्रीप्राप्ति के लिये आपसमै भयङ्कर द्वन्द्व मचा देते फिर वाली शक्ति सहस्र सहस्र सृष्टिका विस्तार करती है। एक सिंहनीके लिये दो सिह प्राणान्तकं युद्ध करते है। विष्णुशक्तिके पालन-पोषण करनेवालो क्रियासे | हैं। इस युद्ध के अन्तमें जो सिह विजय प्राप्त करता है, . सृष्ट पदार्थ पुष्ट होता और विशाल विश्वब्रह्माण्ड में फलता उसो सिहका सिनी अनुसरण करती है और बड़े , है। उत्पत्ति और विस्तृति ब्राह्मी और वैष्णवी शक्तिको उत्साह के साथ। सनातनी क्रिया है। यहां हम सृष्ट पदार्थों की उत्पत्ति, ' असभ्य समाजको प्राथमिक विवाह-पद्धति । । स्थिति और सहतिक सम्बन्ध कोई बात नहीं कहेंगे। मानव समाजकी आदिम' मयस्थामें भी इस तरह . केवल इसकी विस्तृनिके सम्बन्धमें एक प्रधान विधान धीरविक्रमसे ही स्रोग्रहण करनेकी प्रथा दिखाई देती है। तथा उपायके विषय पर मालोचना करेंगे। . ' चिपेवायान (Chippervasan) जातिके लोग स्रोप्राप्तिके ___ वोज और शाखा आदि जमोनमें रोपनेसे ही उद्भिद्- लिये भीषण युद्ध में प्रवृत्त होते हैं।"युद्ध में जो जीतता है, वंशको वृद्धि होती है। इस यातको प्रायः सभी जानते | उसी वीरवरको स्त्री मिलती है । टास्को (Taski) जाति- और अनुभव करते हैं। "पुरुभुजादि” एक प्रकारका के लोगोम भी युद्ध करके ही स्रोग्रहण करनेको प्रथा है। उद्भिद है। यह अपने शरीरको विभक्त फरके ही अपने वुसमेन (Bushmer) जाति के लोग यलपूर्वक दूसरी स्रो.. वंशका विस्तार करता है। जीवाणुओं में भी ऐसी ही को ला कर उसके साथ विवाह कर लेते हैं । अष्ट्रेलिया .. यशवृद्धिको प्रक्रिया दिखाई देती है। प्रोटोजोया (Proto., के अन्तर्गत कुइन्स्ल ण्डप्रवासी भाले वरछेके "साथ युद्ध .. zoa) नामक बहुत छोटे जीवाणु हमारी आँखोंसे दिखाई | कर स्रोप्राप्ति करते हैं। . . . . . . . . नहीं देते ; किन्तु अणुषीक्षणयन्त्रसे यह स्पष्टं दिखाई देने कुइन्सलेण्ड के अष्ट्रेलिया में इस तरह का भी काण्ड . हैं। अपने शरीरको विभक्त कर इस जातिके जीवाणु || देखा जाता है, कि एक स्त्रीके लिये चार पांच 'आदमियों अपने वशको अद्धि किया करते हैं। इन संघ जीवाणुओं में झगड़ा खड़ा होता है और वह स्त्री अलग खड़ा को इसके लिये अपना शरीर छोड़ देना पडता है । इसके रहती है और यह कौतुफ देखा करती है। ऐसे झगड़े में सिया इनकी यशद्धिका काई दूसरा उपाय नहीं। इनको मनुष्य भङ्ग भङ्ग हो जाते तथा 'कभी कभी रकस्रोत भी 1.01.1