पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विमीतक , असामो-हुलच, धौरो गारो-चिरोरी; लेप्चा--कानोम्. वृक्षका बहाल तरास देनेसे जो निर्यास निकलता मघभाषा-सचेङ्ग भील-येहेड़ा; मध्यप्रदेश-घेहरा, ई, वह गोंद (Guin Arabic ) की तरह गुणविशिष्ट विहरा, भैरा, बहेड़ा, येहरा, टोयाएडो, गोण्ड-तहक, होता है। यह सहज में ही पानी में घुल जाता है और तकवीर, युक्तप्रदेश-वहेड़ा, बुहेड़ा, पेहादिया; पञ्जाद- इसमें अग्निका सपोग कर देने पर यह प्रज्वलित हो पहिडा, बहेड़ा घोरहा, बलेला, पयहा, बेहेडा, मारवाह- | उठता है। किन्तु इससे विशेष कोई गन्ध नहीं निकलती बहेड़ा, हैदरावाद-महेड़ा, झरा : सिन्धु-वथड़ा; दाक्षि है। फार्माकोग्राफिका इण्डिकाफे रचयिताका कहना णात्य-घद्धा, बल्दा, बलरा, यतरा, धैर्दा, पुल्ला, है, कि यसोरेके गोंदकी तरह ही यह है। अनेक समयमें मेरदा, येहला, वयई प्रारत-वहेड़ा, बहड़ा, येहेड़ा, बेहडा, | यह देशी गोंदकी तरह विकता है। कोलजातिके कुछ भेरा, येहेदो, बलरा, भैरा, मेरदा ; घटुङ्ग, येल्ल, हेल, | आदमी इसे खाते भी हैं । यह सम्पूर्णरूपसे नहीं गलता गोतिङ्ग, येल; महाराष्ट्र-भेदा, येहेड़ा, बहेरा, घेला, और इसमें साम्वेलाकृति Calcium Oxalate के दाने, गोतिङ्ग, येहार्दा, वेहशा, सग्वान्, बेड़ा, हेला, येर्दा, येहेल' Sphaerocrystals और विभिन्न दानेदार चूर्ण पाये येहड़ा; गुर्जर प्रान्त (गुजरात)-सान, येहसा, येहेड़ा ! जाते हैं। हेटान, नामिल-जनी. थनी. कटपलपन, तानकाय, ! हरीतकी (हरें )की तरह इसका स्वाद भी कपाय ताण्ड, तोण्डा, चेटुपड़प, तमके, तानिकै, तानिकाइया, हैं। इसलिये अधिक परिमाणसे इसकी रपतनी यूरोपमे कह पहप, बलुई-मर्दू, तनिकोई, फट्ट पर्पो; नेलगू होती है । भारतमें भी चमड़ा साफ करने और रंग तनो, तण्डी, तोयाएडी, मानद्रा, माना, पानी, तड़ो, तोएड गाढा करनेके लिये इसका बहुत प्रचार दिखाई देता है। फटलू, उलूपी, तान्द्राकाय, आनसी, आएडी, वहद्हा, | यह बहेड़ा साधारणतः दो प्रकारका होता है-१ गोला. घहया, बढ़ा । कनाड़ो-शान्ति, ताये तनिकारो, तारि | कार, व्यास ॥ या इञ्च, २ अपेक्षाकृत बड़ा, दिग्वा. कारी, भेरदा, येहेला तरो, मलयालम्-मनी, तानी; कार और मुंह पर कुछ विपटा है। फल विलकुल गोल ब्रह्मदेश-चित्सिन्, टिससिन्, वनखा, फानखासी, होता है, किन्तु सूखने पर इसको पीठ पर सिकुड़ा पड़ फागांसो, फांगोह, पनगन, रहोर, सिंहली-यलू, जाता है। इसका यीज या गुठली पञ्चकाना होती है। वुलुगाह । अरवी-पतिलज, घेलेपलुज, लिलाज इस गुठलीको फोड़नेसे जो गूदो निकलती है, यह मीठी फारसी-लेना, येलायलेह ,, पलिलाइ । . और तैलाक होती है। चमड़े के सिवा कपड़े रंगने ___इसका वृक्ष वन्यभूमिमें आप ही आप उत्पन्न होता भी इसका खूब व्यवहार किया जाता है। इजारीवागमें है। वाणिज्यके लिये कितने ही लोग इसको खेती | लोग जिस प्रणालीस बहेड़े से कपड़े रंगते हैं, नीचे उस. भी करते हैं। इसके धुक्षीको साधारण आरति वड़ी | का उल्लेख किया जाता है- सुन्दर है। यह मूलमें थोड़ी दूर तक सीधा मा कर एक गज कपड़े के लिपे १पाय बछेड़ा ला कर उसे पोछे शाखा प्रशाखामोमें विभक्त होता है। देखनेसे फाड़ डाले, उससे गुठलो आदि निकाल कर उस चूर्ण. मालूम होता है, मानो एक घड़ा छाता यहां छाया विस्तार को एक सेर पानी में भिगा और उसमें १ तोला '. करनेके लिये ही रखा गया है। शिवालिक शैल पर, भन्दाज अनारको छाल मिला कर एक रात तक पेशायरमें, सिन्धुनदक किनारेको भूमिमें, कोयम्यतुर और इन्हें इसी तरह जलमे छोड़ देने पर दूसरे दिन उसको पलियाके जङ्गलमें, लडाके दो हजार फीट ऊंचे शैल- उपयु परि तीन वार वि पर चढ़ा कर मौट दे। उण्डे स्तयकों और ग्वालपाडा, सुम्मनगर, गोरखपुर, धामतोला होने पर मोटे कपड़े से छान ले । इसके बाद जो कपडा और मोरङ्ग शैलमालामे बहेड़े के वृक्ष बहुतायतसे देखे रंगना हो, उसको पहले जलमें फोच कर सुखा लेना जाते हैं । इसके पत्त, फल, काष्ठ ( लकड़ो) और निर्यास | चाहिये । कपड़ा जब अधमुखा हो जाये, तब उसे अलग मनुष्यके लिये विशेष उपकारी हैं। , एक पात्रमें एक तोला फिटकिरी मिले हुए जलमे हुवा Vol. xxI, 118