पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५३७

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वियन्ध-विवापा ४५५ कमशः सञ्चित और विगुण वायु कत्तुक विषद्ध हो जय और दूध के साथ लावा देना चाहिये और यदि भूख खूद ठोक तरहसे नहीं निकलता तब मनाह रोग उत्पन्न होता लगी हो, तो ऊपर कहे गपे अग्न आदि भी दिये जा है । अपकरसजनित नाहमें तृष्णा, प्रतिश्याय, मस्तकमें | सकते हैं। तेलको अच्छी तरह मालिश करके कुछ उष्ण ज्वाला, भामाशय में शूल और गुरुना, हदय में स्तब्धता जलसे स्नान करे, किन्तु शिर पर उस जलको ठंढा करके तथा उदाररोध आदि लक्षण दिखाई देते हैं। मलसञ्चय देना होता है। क्योंकि शिर पर गरम जल देने से उपहार- जनित आनाहरोग कटि और पृष्ठदेशको स्तम्धता, मल के बदले अपकार होता है। मूत्रका विरोध, शूल, मूळ, विष्ठावमन, शोय (आध्मान) उष्णजल शिरके नीचे जिस जिस मगम पड़ता है, . पेट फूलना, अधोवायुका निरोध तथा अलसा रोगोक्त उस उस भगको वलवृद्धि होती है और उत्तमान में अन्यान्य लक्षण दिखाई देते है। । .. अर्थात् मस्तक पर उसका परिपेक करनेसे 'चारादिका चिकित्सा-मानाहरोग भी उदावत रोगकी तरह बलहास होता है। .. वायुका अनुलोमतासाधन तथा यस्तिकर्म और वस्ति । गुरुपाक, उष्ण वोर्म और रुक्षदथ्य मेोजन, राति प्रयोग आदि कार्य हितकर हैं। उदायत रोगकी तरह हो जागरण, परिश्रम, व्यायाम, पथपर्यटन तथा क्रोध, शोक इसकी चिकित्सा करनी होगी, क्योंकि दोनों होके कारण आदि कार्य इस रोगके अनिष्टकारक हैं अतपय उनका और कार्य अर्थात् निदान लक्षणादि प्रायः एकसे है। सम्पूर्णरूपसे परित्याग करना उचित है। .. ... . उदावतेगेग देखो। ४मूनादिका अवरोध, कोष्ठपद्धता। .. आनाइरोगको निशेर औपघ.यह है-निसोथका चूर्ण २ विवन्धक (स० पु०) १ भानाह रोगभेद । विपन्ध। .... भाग, पोपल ३ भाग, हरीतको ५ भाग और गुड़ सबका विवन्धन, ( स० क्लो० ) विशेषकरसे धन्धन ; पीठ, छाती, समान भाग ले कर एक साथ घोटे, पीछे चार आना घt , पेट मादिफे घाय या फोड़े को कपड़से विशेषरूपसे बांधने- माध तोला मात्रा सेघन करनेसे पानाहरोगको शान्ति ! की युकि या क्रिया । ( सुशत ) .. .. .. .. होता है । वच, हरें, चितामूल, यवक्षार, पीपल, सविन्धवन (स' पु०) विपन्धन देखो। और फूटज इन सब द्रोंका चूर्ण समान भागमें मिलावे। विबन्धवर्ति (स० स्रो० ) घोड़े का शूलरोगभेद ४ या २ आना मात्रामें सेवन करानेसे आनाहरोगमें बहुत । उनका पेशाव गंद हो जाता है तथा पेट और लाम पहुंचता है । वैद्यनाथवटी, नाराचचूर्ण, इच्छाभेदं जाहने सो पोड़ा होती है। ..... रस, · गुहाटक, शुष्मूलाध घृत और, स्थिरात विवन्धु (स० लि.) १ वन्धुर हित, जिसके भाई भादि भोपध मानाद और उदावत रोगमें पयहन हो। २ पितृहीन, अनाथ । ...! ." होती है। ... विवह (सं० पु० ) १ वई, मोरका पंख। (त्रि.) यह पथ्यापध्य-आनाइ मोर उदायत रोग यायुशान्ति- विरहित, विना पंख या पत्तेके ।। .. .. . कर अन्नपानादि भोजन करें। पुरानेवारोक चावलको विश्ल (सं० वि०) १ दुर्यल, अशक्त। २ विशेष धल- .. मात कुछ गरम रहने घोके साथ रोगोफेो खिलावे । वान् । ३ बलरहित । . ., .::: ...... भई, मगुरी, को और मौरला मलीका शोरवा, बकरे | विवलाक (स' त्रि०) अशनिपात रहित, जिससे विद्य त् .. मादि मुलायम मांसका जूस हार मूलरे।गोक्त तरकारी नही निकलती हो। . . . .. .. . इस रोगमे लाभजनक है। इसमें दूध भी . दिया जा बियाण (सलि०) वाणरहित, वाणशून्य ।'. . . .. . सकता है, किन्तु मांसवार दूध एक साथ खाने न.देना विवाणज्य.(स० वि०) वाण तथा ज्या,'तोर और होगे। चाहिये। मिस्रीका शरवत, नारियलका ,पानी, पक्का | विवाणधि (स' त्रि०) यालधि। ... पपोता, आंत, इंग, और मनार आदि भो उपकारक है। विधाध (सनि .. . .. ) पाधारहित ।::., .. रात को ठीक तरहसे भूख..न लगने पर जौका, मांड ! विधाघ्रा.(संत्री०) विहेउन ।...........