पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५२०

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४३४ , विन्ध्यवासिनो,. . विन्ध्यवासिनी-विन्ध्याचलकी एक देवीमतिका नाम । मानो नरकपालभूषित , श्मशानमें भ्रमण .परनेमें भगवती दाक्षायणोके दक्षालयमें देहत्याग करने पर महा- प्रिय है। उनके द्वारकी प्राङ्गण-भूमि उत्कृष्ट शोणितसे देव सती बिरहसे व्यथित और उन्मत्त हो कर उन सती सुसजित है। उनके मन्दिरके चारो ओर जो उद्यान को शवदेहको कन्धे पर रख सारी पृथ्वीमें घूमते | है, उसमें जहां देखो कुमारके प्रिय सैकड़ों मयूर घूम फिरते थे। उस समय भगवान विष्णुने उनको शान्त - फिर रहे हैं। मन्दिरके भीतर कालिमाके गन्धकारसे और संसार-रक्षा करने के लिये अपने चक्र द्वारा सती देह भायत है। फिर भी, उसमें चोरों के लिये खुली छुरिका. को टुकड़े-टुकड़े काट डाला। देवीको देहके ये टुकड़े । यहुतेरे धनुप और तलवारें शोभा पा रही हैं। मन्दिरके जहां-जहां गिरे, वहां वहां शक्तिका एक एक पोठ स्थापित | अति स्वच्छ प्रस्तरफलको पर रक्तवर्ण पताकाओं का हुमा। इस तरह जो टुकड़ा यहां गिरा था, उससे ही प्रतिविम्य प्रतिफलित होनेसे सैकड़ों गोदड़ उसे रक. विन्ध्यवासिनो देवोको उत्पत्ति है। प्रवाह समझ कर चाटते रहते है। : मन्दिरफे मोतरी वामनपुराणमें लिखा है, कि सहस्राक्षने भगवती दुर्गा भागमें मन्द मन्द दोप जलता रहता है-मानो उत्कृष्ट देवीको विध्यपर्वत पर ले जा कर स्थापित किया है शत शत नरमुण्डों के धन कृष्णकेशराशिसे ही दोपकका और यहां देवताओं द्वारा पूजिता होने पर विन्ध्यवासिनो | प्रकाश निस्तेज हो रहा है। कोली जातिको त्रियां जामसे प्रसिद्ध हुई है। नरवलिक भोषण दृश्य देखनेमें मानो अक्षम हो कर फिर देवीपुराणमें लिखा है, कि भगवतो दुर्गाने | यहाँ नहीं जाती। इसोसे ये देवीके चरणों में न दे कर विन्ध्यपर्वत पर देवताओं के लिये अवतीर्ण हो कर महा दूरसे हो गध पुणादि अर्पण कर चलो आती हैं। यहां के योद्धा मसुरोंको मारा था। उसी समयसे यहां घे अय वृक्ष भी मनुष्य मांसके रकसे अनिरक्षित है। इस निशीष स्थान करती हैं। मन्दिर में भी मांसयिकयरूप महाकार्यकी सूचना मिल बहुत पुराने समयसे हो शक्ति मूर्तिको पूजा होती आ रही है। देघोकी सहचरी रेवतो भी देवीके पाइदेशमै रहो है । . कुछ लोग इस मूर्तिको वहांको शयर, कोल | निपतित भीषण मनुष्यको हदियों का दर्शन कर मानो आदि असभ्यजातियोंकी उपास्य देवो कहा करते हैं। खभाषतः ही भीत हो रही है। दरिदापत्र-परिधान , ईस्वी सन् ८वीं शताब्दीके मध्यभागमें सुप्रसिद्ध कवि | एक शवरने महाराज यशोवर्माके साथ ले कर यथा वाक्पतिने अपने गौड़यधकाव्यमें उस भीषणा विन्ध्यः नियमसे देवीका दर्शन कराया था बासिनी मूर्तिका वर्णन ..किया है. । वाक्पतिके ___ नापतिके गौड़यधकाध्यमें देवीका जो चित्र और प्रतिपालक महाराज यशोधर्मदेवने देवोका दर्शन कर मदिरका जैसा वर्णन किया गया है, उससे मालूम ५२ श्लोकमे उनका सतय किया था। उन.श्लोकोंसे मालूम होता है, कि वे देवी किस तरहं नरमांसातिलोलुपा होता है, कि देवीके सिंहदरवाजे पर सैकड़ों घण्टे झूलते | थी। ये असभ्य कोली और शवरजाति द्वारा पूजित थे। (मानो कैदी महिपासुरवंशके गलेसे घण्टे खोल कर है-शयर हो उनकी पूजा करानेवाले पण्डों का भी काम यहाँ रखे गये हों) देवीके पदतलको किरणसे महिपासुरका GE किरणले महिपासा करते थे। किंतु बहुत दिनो से ये देवी अनार्य जाति- मस्तक सुधाधवलित हो रहा है। मानो हिमालयसुताके की उपास्य रहने पर भी ईस्वी सनकी वी शतानीक सन्तोषके लिये अपना एक तुपारखण्ड भेज दिया हो.पूर्वसे ही आर्यो द्वारा भी पूजित हो रही है। यह भी | गोड़वध काव्यमै महाराज यशोवर्मादेवक स्तोत्र पाठ मन्दिरके सुगन्धित चबूतरोंमें दल के दल भ्रमर गूज रहे, करनेसे सहज दो मालूम होता है। .. . है। (मानोजन्म-मरण रहित मानवदेवीका स्तय कर रहे . .' राजतरङ्गिणीमें विन्ध्य शैलस्थ इन देवीको भ्रमर- हो । विन्ध्याद्रि धन्य हैं, क्योंकि उसकी एक कन्दराम देवो । वासिनो हो लिखा है। (राजत० ३१३६४). अवस्थित है )। मन्दिरके भीतर जाने पर देवीके चरण | : आज मो हजारों यात्री देवीदर्शन के लिये. विन्ध्या किष्टिनी रोल पर मन : मारुष्ट होता है । वह चरण | चल जाते हैं। विन्ध्याचा देखा। . . . . .