पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४८०

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४०२ विधवा विता फर विधवा भी मङ्गलरूपिणी होती है और उसको त्रियों के विवाह के समय पुण्याहवाचनादि, स्वल्पयन कही भी दुग्न नहीं होता। फिर यह मरने पर पति और प्रजापति देवताके उद्देश्यसे जो होम करना होता है, . लोक पाती है। (काशीख० ४ म०) । यह केवल दोनोंके महलके लिये किया जाताt.in ___ग्रह्मवैवर्रापुराण में लिखा है, कि विधया प्रतिदिन विवाह के समय जो सम्प्रदान किया जाता है, उसीसे हो दिनके मन्तमें इविष्यान्न भोजन करे और सदा निष्कामा | स्त्रियों पर स्वामीका सम्पूर्ण स्वामित्य उत्पन्न होता है। हो कर दिन विताये। उत्तम कपड़े पहनना, गन्धद व्य, । तयसे स्त्रियों की स्वामिपरतन्तता हो उपयुक्त है । पनि । सुगन्ध तेल, माल्य, चन्दन, शङ्ग सिन्दुर और भूपण गुणहीन होने पर भी उसकी उपेक्षा न कर देवताको तरह विधवाफे लिये त्याज्य हैं। नित्य मलिन वस्त्र पहन कर सेघा फरना कर्त्तव्य है । स्त्रियों के सम्बन्धमें स्वामोके विना नारायणका नाम स्मरण करना चाहिये । विधया पृथक यज्ञका विधान नहीं है और न स्वामीकी आमाके स्त्रीको चाहिये, कि वह एकान्त चित्तसे भक्तिमती हो विना व्रत गौर उपवास हो करना होता है। केवल पति कर नित्य नारायणकी सेवा, नारायणका नामोच्चारण सेवा द्वारा हो नियां स्वर्ग जाती है। और पुरुषमात्रको धर्मपुन जान कर देखे । विधवाको स्वामी जीवित रहे या मर गया हो, साध्वी स्त्री मीठा भोजन या अर्थ सञ्चय नहीं करना चाहिये। यह पतिलोक पाने की कामना कर कमो उसका अप्रियावरण एकादशी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, श्रीरामनवमी और शिय-| न करे। पतिके मर जाने पर स्वेच्छापूर्वक मूल और चतुर्दशोको निजल उपवास करे। अघोरा और प्रेता फल द्वारा अपना जीवन क्षय करे। किन्तु कभी भी चतुर्दशीनिधि और चन्द सूटोफे प्रहण के समय भ्रष्ट 'पति सिया परपुरुषका नाम तक नहीं ले। जय । ६व्य विधयाके लिपे निषिद्ध है। सिवा इनके और अन्य 'तफ अपनी मृत्यु न हो, तब तक मैथुन, मधु, मांस... भोजन करने में कोई दोष नहीं । विधयाके लिये पान और घर्जित हो कर सशसहिष्णु और नियमाचारी हो कर मद्य गोमांस घराबर है। सुतरां विधवा इन वस्तुओ। रहे। एकमात्र ब्रह्मचर्याका पालन करना हो विधयाका को न याये। लाल शाक, मसूर, जम्बीर, पर्ण गौर गोल धर्म है। विधया अपूत्रा होने पर भी ब्रह्मवाका पालन कह भी खाना मना है। कर स्वर्ग जाती है । ( मनु० ५ अध्याय) पलंग पर सोनेवाली विधवा अपने मृत्पतिको ___ सब धर्मशास्त्रों में इस बातको पुष्टि हुई है, कि स्वामी. गधोगति देती है और यदि यह यानवाहनों का व्यवहार को मृत्युके वाद विधवा ब्रह्मचर्याका पालन कर जीयन फरती है, तो स्वयं नरकगामिनी होती है। सुतरां इनका | विताये। इस बातमें तनिक भी कोई विरोध दिखाई परित्याग फरे । फेशसंस्कार, गात्रसंस्कार, तैलाम्पङ्गा नहीं देता। दर्पणमें मुष्प्रदर्शन, परपुरुषका मुखदर्शन, यात्रा, नृत्य, |. . . . . . . महोत्संय, नृत्यकारी गायक और सुवेशसम्पन्न पुरुषको कुछ लोग कहते हैं, कि जो विधया ब्रह्मचर्या पालन कदापि देखना विधया के लिये उचित नहीं । सर्वदा धर्म- | में असमर्थ है, उसके दूसरा विवाह कर लेने शास्त्र • कथा श्रवण कर दिन बिताना चाहिये । (ब्रह्मवैवर्त पुराण) विरुद्ध नहीं होता । वे कहते हैं, कि "कली पाराशरण - स्यामोको मृत्यु के बाद साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्य व्रताव- स्मृतः" कलियुगमें पराशरस्मृति ही प्रमाणरूपमे प्राध लग्नन कर दिन विताये। यदि पुत्र न हो, तो.मी एक है। अतएव पराशरने जो कहा है, उसका आदर करना प्रहाचर्य के प्रमावसे स्वर्ग में जाती है । मनुमें लिखा इस युगमें लोगों का कर्तव्य है । पराशरका मत है- है, कि पिताने जिसे दान या पिताको भाक्षासे भ्राताने . . : "नष्टे मते प्रमजिते. पलीये च पतिते पतो। जिसे दान किया है, उस स्वामीकी जीवितकाल तक पञ्चस्थापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ सुधूपा करना और स्वामीको मृत्युके बाद प्यभिचार मादि मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता । - द्वारा उनका उल्लंघन न करना स्त्रीमानका कर्तव्य है। सा मृता.लभते स्वर्ग: यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥