पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४१५

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विडाल-विड़ भेदिन ३४५ होता है। यदि यह किसीके किसी भड़में अपने नम्बसे रोग विनष्ट होते है। (भावन० नेत्ररोगाधि० विहाकविधि ) विदीर्ण करे, तो उस स्थानमे विप चढ़ आपेगा। ऐसी विडालपद ( स० पु० ) १ दो तोलेका परिमाण। (लो०) दशाने यहां एक तपे लोहसे दाग देना चाहिये। ऐसा २मार्जारचरण, विड़ालका पैर।। करने पर विषका अमर मिट जाता है , नहीं तो यह विष विडालपदक (सक्ला० ) कपपरिमाण, सोलह माशका प्रश्न हो उठता और घाव बढ़ जाता है। इससे यन्त्रणा एक मान । भी दढ़ जाती है।. . | विड़ालाक्ष (सं० पु०) महाभारत के अनुसार, एक राजाका ये साधारणतः ३, ४, या ५शायक पैदा करती हैं । इन नाम जी महाराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञ गया था। शारको के हतपदादि अवयव रहने पर भी यह एमा विडालो ( स० स्त्री० ) १ विदारीकन्द । २ मार्जारी, पिण्डवत् हो दिखाई देते हैं। फेवल प्राण ही जोयशक्ति विल्लो। का परिचायक रहता है। उस समय इनके शरीरमै लो विड़ीन ( स० क्लो०) वि डोक्त । खगगतिविशेष, पक्षियों. नहीं रहता। यदि इस जातिका पुरुप इन शावकों को की उड़ान का एक प्रकार। देख ले, तो वह उन्हें चट कर जाता है। इसीलिये | बिड़ल ( स० पु० ) वेतको लता। बिल्लियां अपने शायकों को इधर उधर चुराती फिरती विडोजस् (स० पु०) विष व्याप्ती, विष-किप, विट व्यापर्क हैं । २ सुगन्ध्रमार्जार, मुश्क विलाय । (को०) ३ हरिताल ।। मोजेो यस्य । इन्द्र । (अमर) विडालक ( स० लो० ) १ हरिताल। (पु०) विडाल बिडाजस् ( स० पु० ) विड़ माक्रोशि शत्रु द्वेषमसहिष्णु एव स्वाय फन् । २ विडाल, विल्ली। ३ नेत्र रोगको मोजो यस्य । इन्द्र । (द्विरूपकोष) एक औषध। विड़ गन्ध ( स० लो०) विट विष्ठा ,इव गन्धे! यस्य । "विडालके वहिले पो ने 'पदमविषन्जिते । विट लवण, सांचर नमक । . तस्य मात्रा परिक्ष या मुखालेपविधानवत् ॥". | विग्रह (स० पु०) कोष्ठबद्धता, मलरोध, कब्जियत । (भावप्र० नेत्ररोगाधि० ). . (माधवनि.) नेत्रफे यहि गमें पक्ष्मका परित्याग कर प्रलेप देनेको विडघात ( स० पु०) मलमूत्रका अवरोध, पेशाव और विडालक कहते हैं । इसकी मात्रा मुखालेपके समान | पावामा रुकना। होगी। मुखालेपको मात्रा सम्बन्धमे ऐसा लिपा विड़ ज (म०नि०) विषि विष्ठायां जातः विष-जन-ए। है, कि मुखालेप तो होन मात्रा एक उंगलीका चौशाई | विधाजात, मिष्ठा आदिसे उत्पन्न होनेवाले . कोई भाग, मध्यम माना तिहाई भाग और उत्तम माता एक मकोड़े। . उंगलीका अशि है। यह लेप जब तक सूख न जाये, विड्डसिंह (स.पु०) राजाफे एक मन्त्रीका नाम । सय तक लगाये रखना होगा। सूख जाते ही उसे फेक (राजतर० ८।२४७) देना उचित है। क्योंकि सूखने पर उसमें कोई गुण विड़ पन्ध (सं० पु०) मलका अबरोध, कब्जियत । . नहीं रह जाता, बल्कि यह चमड़े को दृपित कर डालता विड़ भङ्ग (सं० पु०) विड़ भेद, धष्टुत दस्त होना, पेट चलना। ‘विडालप्रलेप-मुलेठी, गेमिट्टी, सैन्धय, दाग-बिड भुगः (सं०नि०) विषं विष्ठां भुनकि, विष भुज: हरिद्धा और रसाचन ये सब दृश्य समान भाग लेकर किए। विड़ भोजी, विष्ठा ग्वानेवाले कीड़े मकोड़े। जलमे पीसे गौर नेत्रफ यहि गमे प्रलेप दे। इस प्रलेप चढ़ भेद ( स० पु०) विडमङ्ग। से सभी प्रकारका नेत्र रोग आरोग्य होता है। रसाञ्जन | विभेदिन (सं०नि०) विष विष्ठां भेत्तुशील यस्य। पा हरीतकी अथवा यिल्यपन या पच, हरिद्रा और सांठ, वह औपध या द्रष्य जो विरेचक हो, वस्ताघर चीज़ या . तथा गेहमिट्टी द्वारा प्रलेप देनेसे भी सभी प्रकार के नेत्र- दया। . .. ..Vol xxI, 8: