पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/२५२

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वार्चाहर्त-वाचिक चाहिारक, संपादयाहा । . .. जैमिनिने कहा है कि 'विरोधे त्यनपेक्ष स्पादनति वार्ताहत्तं (स पु० ) यात्ताहर, दूत ।

मानम्' अवश्य ही यह प्रश्न जैमिनिका उठाया नहीं है,

गार्तिक ( स० को०) वृत्तिप्रंन्यसूत्रविवृतः तत्र साधुः | भाष्यकारने उस प्रश्नको उठा कर उसके. उत्तर स्वार पृत्ति ( कयादिभ्यटक । पा ॥४११०२) इति उक! १ जैमिनिक सूत्रको व्यापश की है। भाष्यकारको ध्याना. का इस प्रत्यक्ष श्रतिके साथ विरोध होनेसे स्मृतिवाश्य किसी प्रन्धके उक्त, अनुक और दुरुक्त अर्थों को स्पष्ट करनेवाला वाक्य या अन्ध। इसका लक्षण- अनपेक्षणोय है। अर्थात् समृतियांफरको अपेक्षा न जिस प्रन्यमें उक्त, अनुक्त गौर दुरुक्त अर्थ स्पष्ट करनी चाहिये। फरनेसे उसका अनादर होगा। प्रत्यक्ष होता है, उसका नाम पार्तिक है, अर्थात् श्रुतिके साथ विरोध नहीं रहने पर स्मृनिवाक्य द्वारा मूलमे जो विषय कहा गया है, उसे स्पष्ट करनेसे श्रुतिका अनुमान करना सगत है। अपीरपेय श्रुति मूलमें जो नहीं कहा गया है, उसे परिव्यक्त घा व्युत्या. स्थतन्त्र' प्रमाण है। स्मृति पौरुषेय अर्थात् पुरका दित तथा मूलमें जो दुवक्त अर्थात् अमङ्गत कहा गया है यापप है, अतएव स्मृतिका प्रामाण्य मूल प्रमाण मापेक्ष उसका प्रदर्शन तथा ऐसे हो स्थानों में सर्गत अर्थ निर्देश है। पुरुषका याक्य स्वतःप्रमाणानहीं है । पुरुषवाक्य करना यात्तिककारका फर्त्तव्य है। का प्रामाण्य दूसरे प्रमाणको अपेक्षा करता है। पयोंकि कात्यायनका बार्तिक पाणिनीयसूत्र के ऊपर, उद्योत- पुरपने जो जान लिया है, वही दूसरेको बताने के लिये करका न्याययात्र्तिक वात्स्यायनके ऊपर, भट्टकुमारिलका घे शब्द प्रयोग वा वाक्यरचना करते है। भोपय एस. तम्बवार्तिक जैमिनीयसूत्र तथा शवरस्वामीके भाष्य से स्पष्ट शान होता है, कि जैसे शानमूलमें शब्द प्रयुक्त के ऊपर रचा गया है। फलतः वार्शिकान्य सूत्र और हुआ है, यह.शान यदि यथा अर्थात् ठीक हो, तो तम्मू- भाष्यके ऊपर हो रचा जाता है। "लक घाफ्य भी ठोक अर्थात् प्रामाण्य होगा। वाय. प्रयोगको मूलीभूत ज्ञान अययार्थ अर्थात् ममात्मक होने- पृत्ति, भाष्य आदि अन्य मूलप्रन्धको सीमा अतिमम से उसके अनुवल में प्रयुक्त पाक्य भी मामाण्य होगा। नहीं कर सकने गर्थात् भाष्यकार भादिको सम्पूर्णरूपसे स्मृतिकर्ता शाप्त है, उनका माहात्म्य घेदमें कोर्तित है। मूलप्रन्यके मतानुसार ही चलना होता है। किन्तु वे लोग मनुष्यको प्रतारित करने के लिये कोई बात न पार्शिककार सम्पूर्ण साधीन हैं। भाष्यकार गादिको 'कहेंगे, यह असम्भय है। इस कारण उन लोगों को साधीन चिन्ता हो नहीं सकती। किन्तु वार्शिकके स्मृतिका मूल भूतवेदयाफ्य समझा जाता है। उन लोगों- लक्षणों के प्रति ध्यान देने होसे छात होता है, कि वार्शिक 'ने घेदवाफ्यका अर्थ स्मरण कर. यापकी रचना की है, फारको स्वाधीन चिन्ता पूर्णमाला बिकाश पाती है। इसीसे उसका नाम स्मृति रखा गया है। स्मृतियणित धार्शिक अन्य देखने से यह स्पट जाना जाता है, कि वार्तिक- कारने फई जगह सूत्र और भाष्यका मत खण्डग करके विषय अधिकांश गलौकिक है अर्थात् धर्मसम्पन्ध, पूर्वा नुभव स्मरणका कारण है क्योंकि गनुभून पदार्थका अपना मत सम्पूर्ण स्वाधीन मायमें प्रकाश किया है। एमरण हो नहीं सकता। मुनियोंने जो स्मरण किया है। चार्तिककारने स्वाधीनभावसे अपना जो मत प्रकाश पह.पहले उन्हें मनुमत हो गया था, इसे समश्य स्वीकार किया है, एक उदाहरण देखने हीसे उसका पता चल करना.पड़ेगा। येदफे सिवा अन्य उपायसे गलौकिक जायगा, चार्तिककारको स्वाधीनताका एक उदाहरण विषयका गनुभव एक तरहसे असम्भय है । गतपय स्मृति मीचे दिया जाता है। मीमांसादर्शनमें पहले स्मृतिशास्त्र द्वारा प्रतिका अनुमान होना आसमंत है। स्मृतिकारीने का प्रामाण्य संस्थापन किया गया है। पोछे घेदविरुद्ध : जो स्मरण किया है 'पद्द वेदमूलक नहीं है, वेदपाली.. स्मृति प्रमाण है या नहीं, इस प्रश्न उत्तर दर्शनकार चना करने होसे इसका पता चल सकता है। .