पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७२७

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(कार्तिक) ५२४ योगराजोपनिषद्-योगवन क्वाथके साथ सेवन करनेसे पित्तज रोग, आरग्वधादि- | कारादिपदं योगार्थविनाकृतस्य रूढार्थस्येव रूढाथविना- गणके क्वाथके साथ सेवन करनेसे कफजरोग, दारुहरिद्रा- कृतस्यापि योगार्थस्य बोधक मण्डपे शेते इत्यादौ योगा. के क्वाथके साथ सेवन करनेसे प्रमेह, गोमूत्रके साथ थस्य मण्डपानकर्तादेरिव मण्डपं भोजयेत् इत्यादौ समु. सेवन करनेसे पाण्डु, मधुके साथ सेवन करनेसे मेदो- दितार्थस्य गृहादेरयोग्यत्वेन अन्वयावोधात् । योगरूढन्तु वृद्धि, नीमके काढ़े के साथ सेवन करनेसे कुष्ट, गुलञ्चके पङ्कजादिपदमवयववृत्त्या रूढ्यर्थमेव समुदायशपत्या चाव- क्वाथके साथ सेवन करनेसे वातरक्त, शुष्क मूलाके क्वाथके अवलम्याथमेवानुभावयति नत्वन्यं व्युत्पत्तिवैचित्रात् - साथ सेवन करनेसे शोथ, पारुलके क्वाथके साथ सेवन तथैव साकाङ्क्षत्वात् । अतएव पङ्कजं कुमुदमित्यत्र करनेसे मूपिकविष, त्रिफलाके क्वाथके साथ सेवन | पङ्कजनिकत्तत्वेन भूमौ पङ्कजमुत्पन्नमित्यादौ च पद्मत्वेन करनेसे दारुण नेत्र-वेदना और पुनर्णयाके क्वाथके साथ | पङ्कजपदस्य लक्षणयैव कुमुदस्थलपद्मयोर्वोधः। सेवन करनेसे सर्वप्रकार उदररोग शीघ्र ही प्रशमित होता है। (भावप्र. वातव्याधि०) वात्तिकके मतसे-अपनी अवयववृत्ति ( प्रकृति योगराजोपनिषद् (सं० स्त्री०) एक उपनिषदका नाम । प्रत्यय द्वारा ) लभ्य अर्थके साथ जो अपने (रूढ़) अर्थका योगरूढ़ ( स० पु० ) योगाथ प्रतिपादको रूढ़ः। योगार्थ अन्वय समझा देती है, उसीका नाम योगरूढ़ है । जैसे- प्रतिपादनके वाद रूढार्थबोधक शब्द अर्थात् प्रकृति प्रत्यय- पङ्कज, कृष्णसर्प, अधम आदि। इसका मर्म इस प्रकार है-जैसे, पङ्कज शब्दके अन्त- के योगसे उत्पन्न शब्दोंका परस्पर (प्रकृति और प्रत्यय- निविष्ट पङ्क (कर्दम ) जनि (उत्पत्ति) ड (कत्र्तृवाच्यमें) का ) अर्थ सङ्गत रखते हुए जिन पदार्थोकी उपलब्धि इनमेंसे प्रत्येकका अर्थ सङ्गत रखते हुए अथ प्रकट करना होती है, उनकी सम्पूर्ण वस्तुओंको न समझ कर उनमेंसे हो तो पङ्कजात वस्तु मात्रको उपलब्धि होगी, किन्तु यदि कोई सिर्फ एक रोका बोध करावे, तो उसे योगरूढ़ इस स्थानमें ऐसा न हो कर पङ्कज शब्दकी अपनी शक्ति शब्द कहते हैं। शब्द तीन प्रकारके होते हैं-योगसढ़, द्वारा पङ्कजात एक पदमका ही बोध होता है। अन्य रूढ़ और यौगिक । अलङ्कारकौस्तुभमे लिखा है, शब्द रूढ़ शब्दोंके साथ इसकी विशेषता यह है, कि रूढ़ तोन प्रकारों में विभक्त हैं। पङ्कम आदि शब्द योगरूढ़ (मण्डपरथकारादि ) शब्द योगाथ ( प्रकृति प्रत्ययार्थ ) शब्दके अन्तर्गत हैं। पङ्क-जनि-ड प्रत्ययमें पङ्करूप जनि वोधक किसी पदार्थको न समझा कर केवल अपनी क के अभिधायक किसी एक योग द्वारा पदार्थकी ही शक्ति द्वारा जो अर्थ प्रकट करता है, उसीकी उपलब्धि उपलब्धि होती है। किन्तु कुमुदादि अर्थको उपलब्धि होती है। जैसे-मण्डप शब्दसे मएड पीनेवालेका नहीं होगी। योगार्थ प्रतीति होनेके बाद जो रूदि अर्थ वोध न हो कर शब्दके शक्ति-बलसे गृहका ही बोध होता समझमें आता है, उसोको नाम योगरूप है। इस प्रकार है; किन्तु योगकर शब्द प्रकृति प्रत्ययके अर्थको छोड़ ईश्वरेच्छा-सङ्कत होनेके कारण सहसा पद्यका ही स्मरण कर रूढार्थ प्रकट करता है, पृथक् कोई वस्तुका बोध हो आता है। नहीं कराता। हां, यदि किसी स्थल पर “पङ्कज कुमुद” स्वान्तर्निविष्टशब्दार्थस्वार्थ योर्बोधकृन्मिथः । और जिस भूमिमें उत्पन्न पडूज ऐसा प्रयोग हो, तो उस योगरूड़े न यत्रैकं विनान्यस्यास्ति शाब्दधीः ॥" स्थानमें लक्षणाशक्तिसे पङ्कज शब्द यथाक्रमसे कुमुद 'यन्नाम खावयववृत्तिलभ्यार्थेन समं स्वार्थस्यान्वय- और स्थलपदुमका वोध भी हो सकता है। बोधकृत् तन्नाम योगरूढ़ यथा पकंजकृष्णसाधर्मादि । योगरोचना (सं० स्रो०) ऐन्द्रजालिक प्रलेपविशेष, जादूगरों- तद्धि स्वास्तनिविधाता पङ्कादिशब्दानां वृत्तिलभ्येन पङ्क- के एक प्रकारका लेप कहते हैं, कि शरीरगे यह लेप लगा जनिकर्तादिना समं स्वक्यस्य पद्मादेरन्वयानुभावकं पङ्क- लेनेसे आदमी अदृश्य हो जाता है। जमित्यादितः पङ्कजनि कत्र्तृपद्ममित्यनुभवस्य सर्च | योगवत् (सं० नि०) योग-अस्त्यर्थे-मतुप्-मस्य व । योग- सिद्धत्वात् । इयांस्तु विशेषो यदुर्दमपि मण्डपरथ. | युक्त, योगी।