पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१८

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- योग . मधुमति आदि समाधिभूमिके लाभ नहीं होनेका नाम, करने के लिये इमशीवालाकियो तितिा है, उसी प्रकार दूसरे प्राणोका दुख दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये। मलब्धभूमिक्रत्व है। शरोरके सुस्थ नहीं रहनेसे कोई भी कार्य नहीं | इससे परोपकाररूप चित्तमल विनष्ट होता है, धार्मिक होता, इस कारण सूत्रकारने पहले ध्याधिको ही विघ्न मनुष्यको देख कर सन्तुष्ट होवें। इससे दोषारोप अर्थात् बताया है। संशय और विपर्यय ये दोनों ही चित्तकी | असूया निवृत्ति होती है, अधार्मिक लोगोंके प्रति उदा. वृत्तिविशेष है, अतएव योगव,त्तिका विरोधी है। क्योंकि सीन रहे, अर्थात् उनका साथ विलकुल छोड़ दे, इससे युगपद चित्तकी वृत्ति नहीं होतो, 'शानद्वयस्यायोगपद्यात् ।। कोधरूप चित्तमल विनष्ट होता है। इस प्रकार पुनः पुनः व्याधि आदि चित्तवृत्ति नहीं होनेसे भी यह योग | अनुशीलन करनेसे वित्तमें शुक्लधर्म अर्थात् राजस- विरुद्ध विक्षेप वृत्ति उत्पादन करके योगका प्रतिपक्ष | तामसवृत्ति दूर हो कर सात्विक वृत्तिका उदय होता है। . होता है। तव चित्त प्रसन्न हो कर सुस्थिर होता है, पहलेको तरह अन्वय और व्यतिरेक द्वारा हो कर्मकारणभाव सडिवेगमें विषयकी ओर नहीं दौड़ता। (योगसू. १।३३) गृहीत होता है। अतएव अन्तराय रहनेसे चित्तका योगका अङ्ग विक्षेप होता है और नहीं रहनेसे नहीं होता। इस- "यमनियमासनप्रायायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टा- लिये व्याधि आदि अन्तरायको चित्तका विक्षेपक जानना वनानि । ( योगम० २२२६) चाहिये। थम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, सभी विषयों में जब तक परिपक्व न हो जाता, तब तक ध्यान और समाधि ये आठ योगके अङ्ग हैं । विना बड़ी सावधानी रखनी होती। ध्येय जव तक साक्षात्: साधनके सिद्धि नहीं होती, इसीलिये योगाङ्गानुष्ठान कार न होता, तब तक पद पदमें योगनश हो सकता उचित है । योगाङ्गके भनुष्ठानसे अविद्या, अस्मिता, है। अतएव योगका अनुष्ठान बहुत सोच विचार कर राग, द्वेष और अभिनिवेशः इन पांच प्रकारके विपर्याय करना होता है। (मिथ्या)ज्ञानका क्षय होता है। विपर्य यज्ञानका चित्तके विक्षिप्त होनेसे दुःख, दौमनस्य, शरीरकंपन, श्वास और प्रश्वास होता है। क्षय होनेसे सम्यकज्ञानको अभिव्यक्ति होती हैं। योगा ये सब विक्षेप रोकने के लिये ईश्वर अथवा किसी अन्य | श्रानुष्ठानके तारतम्यानुसार अशुद्धिका भी तिरोधान विषयमें चित्तको निवेश करना होगायोगानुष्ठान करने- होता । तथा अशुद्धिके विनाश होनेसे तदनुसार ज्ञान- में चित्तको हमेशा प्रसन्न रखना होता है। विसके अप्र- को भी दीप्ति बढ़ती है। पीछे उस वृद्धिले विवेकण्याति होतो है। सन्न रहनेसे कोई भी कार्य नहीं होता, योगको बात तो ____उत आठ गङ्गों के मध्य यम, नियम, आसन, प्राणा- दूर रहे, अतएव जिसके वित्त प्रसन्न हो, पहले योगीको याम और प्रत्याहार ये सव बहिरङ्ग तथा धारणा, ध्यान चहो करना उचित है। चित्तको प्रसन्न करनेका उपाय| और समाधि ये तीन अन्तरङ्ग है। राति तीन ___"अहिंसासल्यास्वेयब्रह्मचर्यापरिमहा यमाः” (योगसू० २।३०) सुखीके प्रति प्रेम, दुःखीके प्रति दया, धार्मिकके प्रति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन हर्ष और पापियोंके प्रति उदासीनता दिखलानेसे चित्त पांचोंको यम कहते हैं। . प्रसन्न होता है। भाष्यकारने इसका तात्पर्य यो बतलाया किसी भी तरह कभी किसो प्राणीका प्राणवियोग है,-चित्तशुद्धिका कारणस्वरूप और फल हो क्या है ? हो; ऐसी चेष्टा नहीं करनेको अहिंसा कहते हैं। पर इसके उत्तरमें कहा गया है, कि जगत्के सभी सुखी लोगों- वस्ती सत्यादि यम और शौचादि नियम सभी अहिंसा- के प्रति मित्रता करे। ऐसा करनेसे चित्तमें जो ईनिल मूलक है अर्थात् अहिंसाको रक्षा न करके सत्यादिका है वह दूर हो जायगा। जिस प्रकार अपना दुःख दूर अनुष्ठान करना निष्फल है।