पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१३

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७१० कहते हैं। एकान और निरुद्ध इन्हीं दो चित्तभूमिमें योग । पञ्चतन्मान आदि सूक्ष्म शब्दवाच्य है ), आनन्द शब्दमें हो सकता है। चित्त जव क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्ता | आहाद, स्थूल-इन्द्रिय (चक्षुः प्रभृति) विषयमें चित्त. वस्थाको पार कर एकाग्र अवस्थामें पहुंचता है, तभी | वृत्ति-धाराका नाम सानन्द समाधि तथा अहङ्कारतत्त्व योगावलम्वन उचित है। विषयमे चित्तवृतिधाराका नाम अस्मिता समाधि है। चित्तके एकाग्र और निरुद्धभूमिमें सम्प्रज्ञात और इसमें विशेषता यह है, कि अहङ्कारतत्त्वके साथ अभिन्न असम्प्रज्ञात यही दो प्रकारके योग हुआ करते हैं । इनमेसे हो समाधिमें आत्मतत्त्व भी वहता है। एकाग्रमें 'मधुमतो'. 'मधुप्रतिका' और 'विशोका' ये तीन इन चार प्रकारके संप्रज्ञानयोगोंमेसे पहले (सवि- अवस्था तथा निरुद्ध भूमिमें केवल संस्कारशेष अवस्था तर्का )के मध्य उक्त चारों प्रकारकी समाधि सन्निविष्ट हुआ करती है। रहती है। दूसरे ( सविचार )में वितर्क नहीं रहता, 'संप्रज्ञायते ध्येयस्वरूपमत्र' अर्थात् जिस अवस्थामें ध्येय बाकी तीन रहता है । तोसरे ( सानन्द) में वितर्क का यथार्थरूप प्रत्यक्ष होता है उसे सम्प्रज्ञात कहते हैं। और विचार नहीं रहता, अन्य दो रहता है। चौथे साधक जव योगावलम्वन करके योगकी सिद्धिसे अभीष्ट | (अस्मिता )में वितक, विचार और मानन्द ये तीन देवताको प्राप्त कर सके, तब उसे सम्प्रज्ञातयोग कहते नहीं रहते, केवल अस्मिता रहता है । यह चतुर्विध हैं। यह सम्प्रज्ञातयोग अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष | संप्रज्ञातयोग सालम्बन है अर्थात् इसमें कोई न कोई और अभिनिवेश इन पांच प्रकारके क्लेशोंको क्षीण करता अवलम्वन रहता ही है। है, इसलिये धर्माधर्मरूप कर्मवन्धन शिथिल हो जाता उल्लिखित चार प्रकारके संप्रज्ञातयोगको दूसरे तरह- है। उक्त पांच प्रकारके क्लेशोंके आश्रयमें रह कर ही से तीन प्रकारके कह सकते हैं, जैसे-ग्राह्यविषयक, धर्माधर्मरूप कर्म फलप्रदान करता हैं। विपयभेदमें यह | ग्रहणविषयक और गृहीतविषयक। इन तीन गुणोंके संप्रज्ञातयोग वितर्कानुगत आदि चार भागों विभक्त तामस भाग पञ्चभूत और सात्त्विक भागसे इन्द्रियां है। विराट. पुरुष चतुर्भुज आदि स्थूल मूर्ति विषय- उत्पन्न होती हैं । ग्राह्यविषय स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे में वृत्तिधाराको वितर्कानुगत, स्थूलके कारण सूक्ष्म | दो प्रकारका है। स्थूलपञ्चमहाभूत-विषयमें समाधिका विषयमें समाधि करनेको सविचार, इन्द्रिय विषयमे नाम सवितर्क और सूक्ष्मपञ्चभूतविषयमें समाधिका समाधिको सानन्द, अस्मिता अर्थात् प्रहीत (आत्मा) नाम सविचार है। ग्रहण विषय भो स्थूल सूक्ष्मके विषय-समाधिको अस्मिता भेदसे दो है। __'वितकः चित्तस्य आलम्बने स्थूलः आभोगः, सूक्ष्मः पूजा संध्या आदि जो कुछ की जाती है, उसे सप्र- विचार: आनन्दः हादः, एकात्मिका सम्बिद् अस्मिता, ज्ञातयोग कह सकते हैं। तत्र प्रथमः चतुष्टयानुगतः समाधिः सविताः। द्वितीयः जिस अवस्थामें एक भी वृत्तिका उदय नहीं होता, वितर्षा विकल: सविचारः तृतीयः विचारविकलः केवल संस्कारमात्र अवशिष्ट रहता है उसे असप्रक्षात- सानन्दः चतुर्थाः तद्विकलः अस्मितामात्र इति सर्वे एते योग कहते हैं। स'प्रज्ञातयोग सिद्ध होने हीसे अस- सालम्वनाः समाधयः।' (भाष्य ) प्रज्ञातयोग होता है। - किसी भी एक स्थूल वस्तुका अवलम्बन कर केवल "विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वकः सस्कारशेषोऽन्यः।" उसके आकारमें चित्तकी वृत्तिधाराको सवितो समाधि ( योगसू० ११८) • कहते हैं । उस वस्तुका सूक्ष्मभाव अवलम्बन कर उसी आकारमें चित्तवृत्तिधाराका नाम सविचारसमाधि । चित्तकी सभी वृत्तियोंके तिरोहित होनेसे सस्कार- (यहां पर स्थूल शब्दसे परिदृश्यमान इन्द्रियगोचर पदार्थ | मात्र रह जाता है, ऐसे निरोधको असप्रज्ञातयोग कहते • मान ही समझा जायगा तथा उसका कारणभूत सूक्ष्म | हैं। असंप्रज्ञातयोगका कारण परवैराग्य है। इसमें हतह रत .