पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६०

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भद्रातत्त्व ( भारतीय ५७ थे, उस समय पश्चिम-मगधर्म मौखरीवंशको राज्य था।| अभ्युदयसे आरम्भ है। उसमें. विलक्षणता देखी जाती उन्होंने मालवकी गुप्त मुद्राकी तरह अपने नाम पर मुद्रा है। इस.मुद्रा के सम्मुखं सागमें दण्डायमान राजमूर्ति चलाई। ईशानवर्मा और शर्ववर्माके नामाङ्कित रजत- और पश्चाद्भागमें उपविष्ट राजमूर्ति मौजूद है। इन खण्ड पाये गये हैं। सद मुद्राओंका दक्षिणप्रदेशमें यथेष्ट प्रचार था। सिंहल- पल्लव। में जव चोलोंका आधिपत्य हुआ, तब वहां भी इस आन्ध्रोंके अभ्युदयसे पहले करमण्डल उपकलमें | श्रेणीकी मुद्रा प्रचलित हुई । कान्दिराज जव तक पलववंशको अच्छी चलती थी। ये पल्लववंश कुरुम्वर खाधीन रहे तव तक इसी श्रेणीको मुद्रा चलती रही। नामसे भी प्रसिद्ध थे। इनकी दो प्रकारको मुद्रा पाई : ___कलचूरी। जाती है। कुछ मुद्रामें जहाज नाव आदिका चिह्न रहने- प्रतीच्य चालुक्योंकी मुद्रा अधिकारमुक्त उत्तरप्रदेश से मालूम होता है, कि पल्लव लोग वाणिज्य व्यवसायके और कल्याणपुर में प्रचलित हुई। अभी केवल कलचूरी बड़े प्रेमी थे। कुछ स्वर्ण और रजतखण्डोंमें पल्लवों- वंशीय श्य राजा सोमेश्वर (१९६७ ११७५ ई०)-को मुद्रा का जातीय चिह्न केशरोमूर्ति और कर्णाटी वा संस्कृत, आविष्कृत हुई है। भाषांकी लिपि देखी जाती है। अन्तिम मुद्रायें पीछे गङ्ग दा कोङ्ग । प्रचलित हुई थीं। महिसुरका पष्टिचमांश नन्दिदुर्गसे ले कर सालेम तक पाण्ड्य । एक समय गङ्गवा कोङ्ग देश नामले प्रसिद्ध था। यहाँसे जो दाक्षिणात्यके बहुत दक्षिणमें पाण्ड्यवंशने ३०० वर्षे सव मुद्रा पाई गई है उनमें चरचिह्न धनुः और हाथीकी तक राज्य किया था। उनकी मोहरोंको गढ़न बहुत मूर्ति अङ्कित है। इस प्रकारको मुद्रा १०६० ई०के. पहले कुछ आन्ध्र और पल्लवों-सी है। भारतके सर्वप्राचीन इस देशमें प्रचलित थो। उसीके अनुकरण पर काश्मी- पुराण-मुद्राके वाद ही हस्तिचित्रयुक्त इन सब मुद्राओंका | राधिप हर्षदेवने अपनी मुद्रा चलाई । राजतरङ्गिणोके प्रचार देखा जाता है। ३००से ६०० ई०के भीतरको निम्नलिखित श्लोकसे इसका पता चला है- वहुत-सी पाण्ड्यमुद्रायें आविष्कृत तो हुई हैं, पर उनसे "दाक्षिणात्याभवद्भङ्गिः प्रिया तस्य विलासिनः । राज्यकाल वा राजाओंके नामका ठोक ठोक पता नहीं, कर्णाटानुगुणष्टङ्कस्ततस्तेन प्रवर्तितः ॥" (१९२७) चलता। चालुक्य-मुद्रा। चोल । चालुक्यराज श्य पुलिकेशिसे हो चालुक्य-मुद्राका दाक्षिणात्यमें जब चोलराजाशोंकी बढ़ती थी उसी प्रचार हुआ है। ७वों सदीमें चालुक्यवंश दो भागोंमें समय चोलमुद्रा प्रचलित हुई। यह मुद्रा दो श्रेणियों में | विभक्त हो गया। जो पश्चिम दाक्षिणात्यमें राज्य करते विभक्त है- थे वे प्रतीच्य और जो कृष्ण तथा गोदावरीके मध्यवत्ती १लो-राजराजेश्वर चोलके अभ्युदयसे पहले की है। पल्लवराज्यको जीत कर वहांके राजा हो गये थे वे इति- इस मुद्रामें चोलराजचिह्न व्याघ्र और दूसरी ओर पाण्ड्य | हासमें प्राच्य-चालुक्य नामसे प्रसिद्ध हैं। दोनों शाखा- और चेरचिह्न मत्स्य और धनु देखा जाता है। यह चिह्न की स्वर्णमुद्रामें वराहचिह्न देखा जाता है। भिन्न देखनेसे मालम होता है, कि उन सब मुद्राप्रवर्तक भिन्न मुद्रा भिन्न भिन्न छनोसे भारतीय प्रणाली पर राजाओंका पाण्ड्य और चेरराजाओं पर आधिपत्य था। वनाई गई है। प्रतीच्य चोलुक्यों की स्वर्णमुद्राए' मुद्रामें नागरो अक्षरमें चोलराजाओंको नाम भी लिखा मोटी और बहुत जगह प्यालेको जैसी होती हैं। किसी है, किन्तु चोलराजाओंको जो वंशतालिका पाई गई है। किसीका विश्वास है, कि चालुक्यों ने कदम्ब राजाओं. उसमें नाम नहीं है। के पाटङ्कका अनुकरण कर इस मुद्राको प्रस्तुत - री-प्रायः १०२२ ई०सन्में राजराजेश्वर बोलके कया है। Vol XVIII. 15