पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५६६

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यवश्वेता-यवाग्रज श्राद्ध जो जौके आटेसे किया जाता है। स्मृतिमें इस | ऽन्युजागूजक्नूचः। उण ३८१) इति आगूच ! जो या श्राद्धका विषय इस प्रकार लिखा है,-वैशाख मासके शुक्ल- चावल का वह माँड़ जो सड़ा कर खट्टा कर दिया 'पक्षमें कुज, शनि और शुक्र भिन्न दूसरे दिन, नन्दा, रिता गया हो । पर्याय-उष्णिका, श्राणा,विलेपो, तरला। (अमर) और त्रयोदशी भिन्न तिथिमें, जन्मचन्द्रसे अष्टमचन्द्र भिन्न चन्द्रमें, जन्मतिथि, जन्मनक्षत्र तथा पञ्चम तारा सुश्रुत में इसकी प्रस्तुत प्रणाली इस प्रकार लिखी भिन्न तारामें, पूर्वफल्गुनी, पूर्वभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, मघा, है-आधे कुटे हुए चावल या जौके तण्डुलसे यवागू भरणी, अश्लेषा और आर्दा भिन्न नक्षतमें यवश्राद्ध करना, प्रस्तुत करनी होती है। इसके तीन भेद हैं, मण्ड, पेया होगा । यदि कोई कार्य वैशाखमासमें न किया जा और विलेपी। पूर्वोक्त तण्डुल जब १६ गुने जलमें पाक सकता हो, तो ज्येष्ठ शुक्लपक्ष या आपाढ़ मासके शुक्ल कर सिद्ध हो जाय, तव कपड़े से उसे छान ले, इसका पक्षमें यह श्राद्ध किया जा सकता है। किन्तु आषाढ़ नाम मण्ड है। ११ गुने जलमें पाक कर अच्छी तरह मासके हरिशयनके बाद यह श्राद्ध करना निषिद्ध है। गलानेसे पेया वनती है और ६ गुने जलमें जिसका पाक यह श्राद्ध विषुवसंक्रान्ति या अक्षयतृतीयाके दिन करना। किया जाता है, उसे विलेपी कहते हैं। पेया और विलेपी प्रशस्त है। इस दिन निषिद्ध नक्षत्रादि होने पर भी किया को छान कर फेंकना नहीं होता। पेयाका द्रवभाग जा सकता है। अधिक और सिक्थभाग (सीडी) थोड़ा रहता है। फिर ___ यह श्राद्ध जौके आटेसे किया जाता है। इसलिये इसे विलेपीमें द्रवभाग थोड़ा रस्त्र कर सिक्थभाग अधिक यवधाद्ध कहते है।* रखना होता है । (सुश्रुत) यवश्वेता (सं०त्री०) यवशकरा, जौका सत्तू। छ भाग जलमें जव यवचूर्णादि अच्छी तरह सिद्ध यवस (सं० फ्लो०) यौतीति यु-(वहियुभ्यां णित् । उण हो जाय, तब उसे यवागू कहते हैं। इसका गुण-ग्राहक, २११६.) इत्यससंज्ञापूर्वकत्वात् न वृद्धिः। ५ तृण | तृष्णा और ज्वरनाशक तथा पस्तिशोधक । पित्त- भास । २ भूसा। श्लेष्मज्वरमें यह दोपहरको और वातज्वरमें शामको यवसप्रथम (सं०नि०)१ सुपक । २ मुख्यान्न, मांस। हितकर है। यवसाद् (सं०नि०) यवसं अत्रि अद्-क्किप् । तृणभक्षक, "यवागूः षड़ गुणे तोये सिद्धा स्यात् कृसरा घना। घास खानेवाला। तपडलैर्मुद्गमासैश्च तिलैर्वा साधिता हि सा । यवसाह (60पु0) यमानीप. यमानीका पौधा। यवागूहिणी वल्या तर्पयो वातनाशिनी ॥" यवसाह्वया (कां० स्त्रो०) यमानी, अजवायन । (परिभाषाप्र० २ खण्ड) यवसुर ( सं० फ्लो० ) यवजाता सुरा, जौकी शराव । चावल, मूग, कलाय वा तिलके छ: गुने जलमें यवसौवोर (सं० क्ली०) यवकाञ्जिक, जौका मांड़। सिद्ध होनेसे उसे यवागू और घना होनेसे उसे कृसरा यवागू (सं० स्त्री०) यूयते मिश्राते इति यु (सूयुवचिभ्यो कहते हैं। इसका गुण, प्राहक, वलकर, तर्पण और वातनाशक माना गया है।

  • "अथ यवश्राद्ध' । तत्र वैशाख शुक्लपक्षे कुजनि.क्रेत | चक्रदत्तमें लिखा है-कि मदात्ययरोगमें, प्रीष्मकाल-

खारे नन्दारिक्तात्रयोदशीतरतिथौ जन्मचन्द्राष्टचन्द्रे जन्मतिथि- में, पित्तकफकी अधिकता और रक्तपित्तरोगमें यवागू जन्मनक्षत्रत्रयपञ्चमतारात्रयेतरेषु .पूर्वफल्गुनीपूर्व भाद्रपदपूर्वाषाढ़ा- | अनिष्टकारक है। मंधाभरपयश्लेषातरनक्षत्रेषु यवश्राद्ध कर्तव्यं । तच्छेषभोज- यवान (सं० क्ली० ) यवतुष, जौका भूसा। नञ्च एतादृनिषिद्धायां विषु वसंक्रान्ती अक्षयतृतीयाञ्च विशेषतः | यवाग्रज (सं० पु० ) यवाग्रात् जायते इति जन-ड । कर्तव्यं । वैशाखाकरणे ज्येष्ठशक्लपक्षे आषाढशुक्लपक्षे च हरि- १ यवक्षार, यवाखार । २ यमानी, अजवायन । (क्ली० ) शयनेतरत्र कर्त्तव्यं ।" (ऋत्यतत्त्व) ३ काञ्जिक, मांड।