पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५२

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मुद्रातत्त्व (भारतीय) 'पहलेसे हो मुद्रा-नामका प्रचार था, यह मन्वादिके। प्रीक और रोमक-वणिक 'कालतिस' कहते हैं। एक 'वचनोंसे. मालूम होता है । रौप्य कार्षापण वा पुराण: एक कलञ्जवीजका परिमाण कमसे कम ५० ग्रेन होता का परिमाण अकसर ३२ रत्ती वा ५७६ मेन था। था। दाक्षिणात्यमें आज भी जो हूण नामकी वर्ण- कनिहमके मतसे कर्षफल अर्थात् आंवलेसे कार्षापण | मुद्रा प्रचलित है उसका भी वजन औसतसे ५२ ग्रेन नाम हुआ है। एक एक आँवला १४० प्रेन तक होता है । यह परिमाण देख कर प्रत्नतत्त्वविद् कनिहम है, यहो ताम्न कार्यापणका परिमाण है। मुद्रातत्त्वविद् । साहबने स्थिर किया है कि ग्रोक-वर्णित. कालतिस रापसनके मतसे एक एक सुवर्ण पुराणका परिमाण ८०, मुद्रा हो स्वर्णमुद्रा तथा अभी हूण मुद्रा कहलाती है । रत्ती १४६.४ ग्रेन वा ६.४८ प्राम, एक एक रौप्य-। तानपुराणको अभी दाक्षिणात्यमें शालाक कहते हैं। पुराणका परिमाण ३२ रत्तो =५८-५६ प्रेन वा ३७६ इस प्रकार अर्द्ध कार्षापण 'कोण' और कार्षापणका ग्राम ( Grammes ) तथा एक एक ताम्रपुराणका परि- चतुर्थाश 'पादिक' वा टङ्क कहलाता है। प्राचीन पुराण- माण ८० रत्ती होने पर भी भारतके नाना स्थानोंमें नाना | के साथ साथ कोण और पादिक. मुद्रा भी आविष्कृत प्रकारके ताम्रपुराण पाये गये हैं। ईसाजन्मसे पहले हुई है । बम्बईकी गुहालिपिमें 'पादिक'को सुवर्णका श्री सदोमें प्रीकप्रभावसे युक्तप्रदेशमें इस मुद्राका बहुत ! सौवा भाग वतलाया गया है। रौप्य-टङ्क वा पादिकका • कुछ रूपान्तर होने पर भी भारतके दूसरे दूसरे स्थानोंमें परिमाण ८ रत्ती = १४.४ ग्रेन, कोणका परिमाण १६ इसका रूप नहीं बदला था, ठोक पहलेके जैसा था। रत्तो=२८.८ ग्रेन, ताम्रकापणका, परिमाण. Y, अर्द्ध - पुराण मुद्राओंमेले कुछ तो चौकोन और कुछ | काकिनी ५ वराटकका परिमाण २० रत्ती = १८ प्रेन, . वादामो रंगको होतो थी। युक्तप्रदेशमें अभी जो ढेपुआ| काकिनी परिमाण २० रत्ती= ३६ प्रेण, अर्द्ध. पणका ': देखा जाता है वह प्राचीन पुराण मुद्गाके अनुकरण पर परिमाण ४० रत्ती= ७२ ग्रेन है। काकिनोका दूसरा बना है। .. नाम वोडि अर्थात् वौड़ी है। वर्तमान कालमें बौडीके बदले ___ अभी स्वर्णमुद्राका नामोनिशान भी नहीं रह गया है, 'पैसा' चलता है। इसे वोडिको स्कच भाषामें Bodle परन्तु भारतवर्ष में एक समय इसका यथेष्ट प्रचार था। और ग्रीक भापामें Oboli कहते हैं ! जिस भारतवासोने प्लिनिका वर्णन इसका काफी प्रमाण देता है। पेरि-! सुदूर यवद्वीपमें जा कर आर्यसभ्यताका विस्तार किया • प्लसने लिखा है, कि भारतवर्षके पूर्व उपकूलमे था वह जाति अति प्राचीन कालमें पाश्चात्य जगत्में 'कात्तिस' (Kaltis ) नामक एक प्रकारको स्वर्णमुद्रा . विना मुद्रा प्रचार किये ही लौट आई हो, ऐसा हो नहीं प्रचलित थी। पाश्चात्य णिक रोमक र्ण और सकता। आज भी ब्रह्मदेश और भारतीय अनुद्वीपोंमें रौप्यमुद्रासे वदल कर उसे अपने देश ले जाते और जो 'तिकल' मुद्रा प्रचलित है, बहुतोंका विश्वास है, खासा लाभ उठाते थे। मलयालम भाषामें इस मुद्रा- कि वही इस देशसे ग्रोक और वाविलनमें जा कर को कलुत्ति', सिंहलमें 'करण्ड' और दाक्षिणात्यमें 'कला', 'सेकेल' कहलाने लगी है। वत्तमान काल में स्वर्णमुद्रा- को 'मोहर', रौप्य मुद्राको 'टङ्का' टाका' या रुपया और ताम्रमुद्राको पैसा कहते हैं ! : ... ... .... - "दे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमासकः । प्राप्तिस्थान और चिह्नसे भो फिर पुराणके नाना ते षोड़श स्याद्धरणं पुराणञ्चैव राजतम् ॥" प्रकारके भेद देखे जाते हैं, जैसे... ... . (मनु मा१३६) १ वत्स (कौशाम्बोसे आविष्कृत। एक समय

  • Cunningham's Coins of Ancient India

p.45.

  • IV. Elliot's coins of South Indii. p. 53.

Rapson's Indian Goins. p. 2-3. - तामिल-पोणि, कणाडो-होण, पारसी-हूण । Vol. xvill. 18