पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५००

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यन्त्र अर्थात् व्रणादिको शोषनाली खोजनेमें व्यवहृत होती है। विशेष ) मुद्गर, हस्ततल, पदतल, अंगुलि, जिह्वा, दन्त, शरपुंखमुखाकृतिके २ व्यूहन कार्यमें अर्थात् व्रण आदिके | नख, मुंह, केश, लगाम, वृक्षको शाखा, प्रवाहण, हर्षे, अय- मध्यगत किसी मंशको काट कर मांस निकालनेके लिये, | स्कान्त, क्षार, अग्नि और औषध, ये पचीस उपयंत्र सर्पफामुखाकृति दो, चालन कार्यमें अर्थात् आघात निर्दिष्ट हैं । इन उपयन्त्रोंका शरीरमें देहके सव अवयवोंके जोड़ोंमें, कोठोंमें और धमनीमें आवश्यकतानुसार साव- हेतु स्थानान्तरित अस्थिको हटा कर यथास्थान नियो. जनके लिये और चडिशमुखाकृति दो, शरीरसे काटे आदि धानीसे प्रयोग होता है। निकालनेके लिये प्रयुक्त हुआ करते हैं। कांटा बाहर यंत्रके कार्य की प्रयोजनीयता। करनेके लिये दो तरहका शलाका-यन्त्र व्यवहृत हुआ यत्र-काय २४ प्रकारके हैं। निर्धातन अर्थात् इधर करता है। इन यन्त्रोंका आधा खण्ड मसूरकी दालके उधर मञ्चालनपूर्वक वहिष्करण, पूरण (घ्रणमें पिचकारी वरावर तथा वक्र मुहका होता है। द्वारा तैल आदि प्रेरणा ), वन्धन, व्यूहन अर्थात् व्रण फोड़े को साफ करने के लिये छः तरहके यन्त्र प्रयुक्त यानो फोड़ोंमें घुसा कर फोड़े के कुछ अंशका निका- होते हैं। इन यंत्रोंके मुहमें या अग्रभागमें रूई जुड़ी | लना, वर्तन चालन ( शल्यादि स्थानान्तरित या कांटेको रहती है, इसीलिये इसे तुली कहते हैं । फोड़े में क्षार और इधर उधर करना ), विवर्तन, विकृतकरण, पीड़न औषध प्रयोग करनेके लिये तीन तरहके यन्त्रोकी आव (उगलियोंसे दवा कर पीव निकालना, मार्ग विशोधन, श्यकता होती है। इनके मुखको गठन थैलोकी तरह, विकर्षण (मांसमें गड़े हुए कांटोंका निकालना), भाह- नीची है। व्रण आदि जलानेके लिये छः तरहके यन्त्र रण (खींच कर वाहर लाना ), आंछन (जरा मुंह पर प्रयुक्त होते हैं। उनमें तीन तरहके मुख काली जामुन लाना ), 'उन्नमन, अधास्थित शिरा कर्णादिको ऊपर की तरह और तीन अंकुशकी तरह टेढे मुखकी आकृति उठाना, विनमन, भजन, उन्मथन, प्रविष्ट शल्य या धुसा वाले होते हैं। नाक आदिके भीतरका घाव छेदनेके | हुआ कांटा पथमें शलाका द्वारा आलोड़न, आयुषण, लिये एक तरहकी शलाकाका प्रयोग होता है। इसके | मुखसे विगड़े हुए खूनको स्तनसे खोचना, एषण, मुखका आकार वेरकी गुठलीके शस्यके आधे खण्डको तरह चीरना, धोना, जुकरण, प्रधमन, नाकमें नस्य आदि होता है और मुखका अग्रभाग थैलोको तरह नीचा और का प्रयोग और प्रमार्जन आदि इन्हीं सव कार्योंमें यंत्रोंकी मुहके दोनों ओर धार रहती है। आवश्यकता होती है। नयनोंमें अञ्जन या सुरमा लगानेके लिये भी एक इसका कुछ ठिकाना न था, कि देहमें कितने प्रकार- तरहकी शलाकाकी जरूरत होती है। इस शलाका | के शल्य अर्थात् वाधाजनक कार्य उपस्थित हो सकते यत्रका आकार उड़दके दानेकी तरह मोटा और इसके | हैं। अतएव बुद्धिमान चिकित्सक स्नान और कर्मा- दोनों ओर पुष्पके मुकुलकी तरह दो मुख होते नुसार सूक्ष्म विवेचना कर य त्रक्रियाकी कल्पना करें। हैं। मूत्रमार्ग या पेशावके रास्त अथवा योनिद्वारको यन्त्रका दोष। साफ करनेके लिये या पेशाव करानेके लिये भी एक यत्रके १२ दोष हैं, बहुत मोटा, असार अर्थात् तरहको शलाका (यत्र)का व्यवहार होता है। इसके अशोधित लौहादि निर्मित, बहुत लम्वा, वहुत छोटा, मुखका अग्रभाग मालती पुष्पको उण्टीकी तरह मोटा और गोलाकार होता है। अग्राही, विषयग्राही, (धरनेको असुविधा जिस यन्त्रमें न हो ), टेढ़ा, शिथिल, मत्युन्नत, मृदुकोलक, ( हल्का उपयंत्र। | खिलका ) मृदु नख और मृदुपाव आदि ये यंत्रके कई रस्सी, वेणिका यानी गुथो हुआ केश, पाट, चम.. कई दोष हैं। उक्त सव दोषोंसे रहित १८ उंगलियोंका छाल, लता, वस्त्र, अष्ठीलाश्म (लम्बा गोल पत्थर-यंत्र उत्तम है। अतएव चिकित्सकोंको चाहिये कि वे Vol, XVIII, 125