पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४६४

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यज्ञोपवीत भग्नीन्धन, वेदाध्यन और अपने घरमें ही भिक्षा मांगनी ___यह उपनयन ऋक यजुः, साम और अथर्व इन्हों होगो ; किन्तु सद्योवधुओंके विवाहकालमें नाममात्र उप | चार वेदोंके अनुसार होता है। इस देश में ऋक्, यजुः नयन कर विवाह करना उचित है। और साम वेदोंके अनुसार यशोपोत प्रचलित है। उन- ___पहले हम ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तोन द्विजा- मे भवदेवभट्ट सामवेदियोंकी, रामदत्त और पशुपति तियोंके उनयनकी बात कह भाये हैं। अव द्विजकन्याओं यजुर्वेदियोंकी तथा कालेसी गवेदियोंकी पद्धति लिख के भो उपनयनको व्यवस्था लिखते हैं। पारस्कर-गृह्य- गये हैं। ऋग्वेदीय उपनयन। सूत्रभाष्यमें हरिहर स्मृतिका वचन उधृत कर लिख गये हैं,-औरस, पुत्रिकापुन, क्षेत्रज, गूढज, कानीन, पुन ज्योतिःशास्त्रानुसार विशुद्ध दिन देख कर उपनयन- भूज, दत्त, क्रोत, कृत्रिम, दत्तात्मा, सहोढ़ और अपविद्ध संस्कार करना होता है। बृहस्पति, रवि, चन्द्र और सुत ये वारह प्रकारके द्विजातिपुत्र ही संस्कारके योग्य तारा शुद्धि में हरिशयनको छोड़ और सभी समयमें उत्त- हैं। किसीके मतसे द्विजजात कुण्ड और गोलक इन | रायण गलग्रहादि दोषरहित होनेसे शुक्लपक्षमें चेद और दोनोंका भी संस्कार करना होगा। यहां तक, कि षण्ढ, वर्णाधिप शुक्ल होनेसे दशयोगभङ्ग, युत-यामित्रवेधरहित अन्ध, वधिर, स्तब्ध, जड़, गद्गद, पंगु, कुब्ज, वामन, / दिनमें रवि, वृहस्पति और शुकरारमें ; द्वितीया, तृतीया, रोगात, शुष्काङ्ग, विकलाङ्ग, मत्त, उन्मत्त, मूक, शय्या पञ्चमी, एकादशी, द्वादशो और दशमी तिथिमे ; पुष्या, गत, निरीन्द्रिय और पुरुषत्वहीन मनुष्यको भी यथोचित हस्ता, अश्विनी, उत्तर फल्गुनी, उत्तरभाद्रपद, खाती, संस्कार करना होगा ।२ पारस्करगृह्यसूत्रके भाष्यमें श्रवणा, धनिष्ठा, शतभिषा, चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, रथकार ( बढ़ई ) और सदाचारी शूद्रोंके भी उपनयनकी रेवती, पूर्वफल्गुनो, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वभाद्रपद नक्षत्र में व्यवस्था है। उक्त भाष्यमें रा४ गदाधरने आपस्तम्वरका उपनयन होना चाहिये। उपनयन शब्द देखो। वचन उद्धत कर लिखा है, "शूद्राणामदुष्टकर्मणामुप. __उपनयनकालमें ब्राह्मण तीनों वर्गों के अर्थात् ब्राह्मण, नयनं । इदञ्च रथकारस्योपनयनं ।" 'अदुष्टकर्मणां मद्य क्षत्रिय और वैश्यके आचार्य हो सकते हैं। उपनयन- पानादिरहितानामिति कल्पतरुकारः।' धूद भी यदि कालमें ब्राह्मणको आचार्य बना कर तव उपनयन देना अदुष्कर्म अर्थात् विशुद्धाचारी हा, तो उसका भी उप चाहिये । क्योंकि, क्षत्रिय और वैश्यको केवल वेद पढ़ने- नयन होगो तथा वढ़ईका भी उपनयन संस्कार होगा। का हो अधिकार है, वेद पढ़ानका नहीं। उपनयन- संस्कारमें वेदारम्भ कराना होता है, इसलिये वह सिर्फ (१)"औरसः पुत्रिकापुत्रः क्षेत्रजो गूढजस्तथा । ब्राह्मणका हो कर्तव्य है, दूसरे वर्णका नहीं। कानीनञ्च पुनर्भूजा दत्तः क्रीतश्च कृत्रिमः ॥ जिस दिन बालकका उपनयन होगा, उसके पूर्व दिन दत्तात्मा च सहोदश्च त्वविद्धसुतस्ततः । पिताको संयत हो कर रहना चाहिये। पीछे उपनयनके पिण्डदोऽ शहरश्चैषां पूर्वाभावे परम्परः ॥ दिन प्रातःकृत्यादि करके वह वृद्धिश्राद्ध करे । यदि वृद्धि- एते द्वादशपुत्राश्च संस्कार्या स्युर्द्विजातयः । श्राद्ध पिता न कर सके, तो बड़ा भाई या सपिण्डज्ञाति केचिदाहु दिनै र्जातौ संस्कायौं कुपडगोलको ॥" भी कर सकता है। __ (हरिहर मा०) ___शुभ दिनमें नियमपूर्वक आभ्युदयिक श्राद्ध करना (२) "पपदान्धवघिरस्तब्धजड़गद्गद्पङ्गषु । होता है। जो आचार्य होंगे, वे उपनयनके स्थानमें जा कुजवामनरोगात शुष्काङ्गिविकलागिषु । कर पहले आचमन और प्राणायाम तथा पीछे निन्न मत्तोन्मत्तेपु मूकेषु शयनस्थे निरिन्दिये । प्रकारसे संकल्प करें। "अमुक' शर्माणमुपनेष्ये" इस प्रकार ध्वस्तपुंस्त्वेऽपि चैतेषु संस्काराः सुर्यथोचिता ॥" संकल्प करके मुण्डितमस्तक और कृतस्नान माणवक (हरिहरकृत पारस्करगृह्यसूत्र भाष्यधृत २।४) | (बटु) को अपने समीप ला कुशण्डिका और उपळेप- Vol. XVIII, 116