पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४५२

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या . अश्वमेध, राजसूय, वाजपेय आदि जितने वैदिक-यन दिष्ट है वह श्रौत तथा गृह्यसूत्रोक्त पद्धतिनिवद्ध यन्त्र गृह्य हैं, ऐतरेयब्राह्मण, शतपथब्राह्मण आदिमें उनका विधान कहलाता है। विधिपूर्वक यज्ञमें दीक्षित न होनेसे श्रौत वर्णित है। सम्प्रति ये सव यज्ञ नहीं होते। आज कल | कार्यमें अधिकारी नहीं हो सकता, किन्तु उपनीत होनेसे पूजा, यह, होमादि हो यज्ञ कहे जाते हैं। हो घरके कामोंका अधिकारी हो जाता है। सोमसंस्था ___ वेदनिघण्टुमें यज्ञके १४ पर्याय कहे गये हैं, यथा-- और हविःसंस्था भेदसे श्रौत यज्ञके दो तथा पाकसंस्था वेन, अध्वर, मेघ, विदथ, नार्य, सवन, होत्र, इष्टि देव- | भेदसे गृह्ययज्ञका एक विभाग निरूपित हुआ है। इस ताता, मख, विष्णु, इन्दु, प्रजापति, धर्म। . लिये यथार्थमें श्रौत और गृह्ययश तीन प्रकारके हैं। यह (वेदनिघण्टु ॥१७)। सोमादि तीन प्रकारका जो संस्थायज्ञ है, उनमें से प्रत्येक आय ऋषिगण बहुत पहले नाना प्रकारके यज्ञ करते का सात भेद है, इसलिये यज्ञकथा कहनेले प्रधानतः थे। इन सब,आदि-यज्ञोंकी प्रक्रियाएं जिस वेदमें लिखी | प्रकारकी यशकथाका बोध होता है । आश्वलायन और गई हैं वही यजुर्वेद नामसे प्रसिद्ध है। वेद देखो। कात्यायन श्रौतसूत्र में (६, ११, १६६, २७, १२, ३, १६०) ___ यजुर्वेद-संहितामें हम लोग इन सव यज्ञोंका विवरण सात प्रकारको सोमसंस्थाका विषय लिखा है और दूसरे पाते हैं,- दूसरे स्थानमें अन्यान्य संस्थाओंकी भी वर्णन है। १ दर्शपूर्णमास, २ पिण्डपितृयज्ञ, ३ अग्निहोत्र, ४ विशेषतः अथर्ववेदीय गोपथब्राह्मणकी (२०२३) इन चातुर्मास्य, ५ अग्निष्टोम, ६ पोडशीयाग, ७ द्वादशाहयाग, | तीन प्रकारको संस्थाके नाम या इक्कीस प्रकार यज्ञके ८ गवामथनसन, ६ वाजपेय, १० राजसूय, ११ चरक-। नाम नीचे दिये गये हैं। सौतामणि, १२ अश्वमेध, १३ पुरुषमेध, १४ सर्वमेध, अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उकथ्य, पोडशी, वाजपेय, १५ ब्रह्मयज्ञ और पितृमेध । अलावा इनके चार वेदों- अतिरात्र और आप्तोर्याम नामक सात प्रकारका याग का ब्राह्मणभागमें हमें अनेक प्रकारके यज्ञोंका उल्लेख सोमसंस्था नामसे ; अन्याधेय, अग्निहोत, दशपौर्णमास, मिलता है। आग्रयण, चातुर्मास्य और पशुक्न्ध नामक सात याग आपस्तम्वकृत यज्ञपरिभाषासूत्र में लिखा है, हविसंस्था तथा सायंहोम, प्रातहोम, स्थालीपाक, नव- श्रौत और गृह्यके भेदसे यज्ञ दो प्रकारका है। श्रौत- | यज्ञ, वैश्वदेव, पितृयज्ञ और अष्टका नामक सात-यज्ञ सूत्र में यक्षका प्रयोग, प्रकार और पद्धति जिस प्रकार उप- पाकसंस्था कहलाता है। . रघुनन्दनने वैधहि सा-विचारकी जगह यज्ञीय पशु- दर्श और पौर्णमासयागको एक संख्यामें शामिल वसे पाप.नहीं होगा ऐसा सावित किया है। वे कहरे करके लाठ्यायन-सूत्रकार ( १०) ने सौतामणि- हैं, कि "तस्माद्यजे वधोऽवधः" अर्थात् यज्ञमें जो पशुवध यागको हविःसंस्थामें गिना है। दूसरे ग्रन्थमैं पाकसंस्था- होता है, वह अवधस्वरूप है अर्थात् इससे वधजन्य पाप के अन्तर्गत यागोंकी भी पृथक्ता देखी जाती है। सोम- नहीं होगा। हिंसा शब्द देखो। संस्थाका कहीं कहीं सोमयज्ञ, ऋतु, ज्योतिष्टोम और सुत्या नामसे उल्लेख किया गया है। हविःसंस्थादिका विरोधाभावात् विरोधे हि पलीयसा दुर्वल वाध्यते, नचेहास्ति भी हविर्य ह आदि भिन्न भिन्न नामोंसे व्यवहार देखा कश्चित् विरोधः भिन्नविषयत्वात् । तथाहि माहिस्यादिति निषे-/ जाता है। किसी किसी ग्रन्थमें सोम, होत और इष्टि- घेन हिंसाया अनर्थहेतुभावो शाप्यते नत्वक्रत्वर्थत्वमपि अग्निपामीयं भेद यज्ञोंका तीन भेद वर्णित है। अग्निष्टोम आदि सप्त- पशुमालभतेत्यनेन तु पशुहिंसायाः क्रुत्वर्थत्वमुच्यते । न त्वनर्थ- सोमसंस्था ही सोम ; अग्न्याध्येय, अग्निहोल और सार्य- हेतुत्वाभावस्तथा सति वाक्यभेदप्रसङ्गात् न चानर्थ हेतुत्वऋतूप- होमादि हौत्र नामसे तथा दर्शपौर्णमास आदि इष्टि नाम- कारकत्वयोः कश्चिदस्ति विरोधः । हिंसा हि पुरुषस्य दोप- से कहे गये है। मावक्ष्यति ऋतोश्चोपवरिष्यति” इत्यादि । (सांख्यतत्त्वकौमु०)। गोमेध, अश्वमेध आदि सभी सोमयचके अन्तर्गत है। Vol. XVIII, 118