पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४५०

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या. '४४७. ऐसे यज्ञका नाम दृढव्रतयज्ञ है। (गीता ५।२६-१३) । है, फलको आकाङ्क्षा यदि न रहे तो उससे जीवका - अन्यान्य योगोगण अपानवायुमें प्राणको आहुति देते, बंधन नही होता । अतएव फलकामना-रहित हो भगवान् - अपानका होम करते और कुछ संयताहारी योगो प्राण के उद्देशसे यज्ञादि करना उचित है। (गीता० श६-१५) और अपानको गति रोक कर प्राणायामपरायण हो प्राण । कल्पके आरम्भमें प्रजापतिने यज्ञाधिकारी जीवोंकी में ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियको आहुति देते हैं। सृष्टि कर यहो कहा था, कि, "इस यज्ञ द्वारा तुम लोग ये सब यज्ञकारिगण यज्ञको समाप्त करके निष्पाप हो समृद्धशाली होओगे। यही यज्ञ तुम लोगोंकी मनो- यज्ञके वाद अमृतभोजन करते और. सनातन ब्रह्मको पाते | वाच्छित फल होगा। इस यज्ञ द्वारा तुम लोग देव- हैं। जो ऊपर कहे गये यज्ञका अनुष्ठान नहीं करते वे | तोओंको संतुष्ट करो और देवगण भी तुम लोगोंको खर्गकी बात तो दूर रहे, इस लोकमें भी शुभफल नहीं| संतुष्ट करेंगे। इस प्रकार परस्पर सन्तोष साधन द्वारा पाते। पूर्वोक्त बारह प्रकारके यज्ञ जो जानते अथवा तुम लोग परस्पर कल्याण लाभ करोगे।' . उन्हें श्रद्धापूर्वक करते हैं वे हो यज्ञविद् है। ऐसे मनुष्य यज्ञादि द्वारा इन्द्रादि देवताओंको संतुष्ट करनेसे वे क्रमशः पापसे छुटकारा पा कर अमृतत्त्व पाते हैं, किन्तु जल देंगे जिससे पृथ्वी शस्यशालिनी होगी। पृथ्वीके जो बनादिका अनुष्ठान नहीं करते वे मुक्ति तो क्या शस्यशालिनी होनेसे तुम लोग भी संतुष्ट होगे। इस पायेंगे, इस संसारमें सुखसम्पद् भी नहीं पाते। | प्रकार तुम लोगोंके कार्यले देवताओंकी और देवताओंके . इस प्रकारके अनेक यज्ञ वेदादिमें कहे गये हैं। जितने कार्यसे तुम लोगोकी मनस्कामना पूरी होगी। यज्ञादि प्रकारके यज्ञ हैं सोंसे ज्ञानयज्ञ हो श्रेष्ठ है। क्योंकि द्वारा इन्द्रादि देवताओंको सेवा करनेसे स्वर्गादि लाभ फलके साथ सभी कर्म ज्ञानमें पर्यवसित होते हैं। जिस भी होगा। यज्ञ द्वारा देवगण संतुष्ट हो कर मनोवांछित प्रकार प्रज्वलित अग्नि काठको ढेरको भस्म कर डालती फल प्रदान करेंगे। इस देवदत्त भोगको पा कर जो है उस प्रकार ज्ञानाग्नि कर्मराशिको भस्म कर देती है। ध्यक्ति देवताओंको दिये विना रूयं भोग करते हैं वे चोर अतएव ज्ञानयज्ञ हो एकमात्र मुक्तिका उपाय है। हैं। देवताओंके संतुष्ट होनेसे मनुष्य अन्न और सुव- ____ "अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। । र्णादि मनोवाच्छित भोग्य द्रव्य पाते हैं। इन सवको होमो देवो वलिभो तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥" देवदत्त ऋणस्वरूप जानना चाहिये। देवताओंकी तृप्ति- (गरुडपु० ११५ अ०) के लिये धान जौ आदि द्वारा देवोहे शसे वैश्वदेव, अग्नि- • यथाविधि वेदाध्यायनका नाम ब्रह्मयज्ञ, पितरोंके | होत्र, जातेष्टि इत्यादि यज्ञ करना होगा। जो व्यक्ति ये उद्देशसे यथारोति श्राद्धतर्पणादिका नाम पितृयज्ञ, देव सब न करके केवल अपना मतलव निकालना जानते हैं ताओंके उद्देशसे होमादि करनेका नाम दैवयज्ञ और देव- उन्हें परस्वापहारी चोर कहना चाहिये। जो यज्ञावशेष ताओंको नियमपूर्वाक वलि चढ़ानेका नाम भौतयश और अन्न भोजन करते हैं वे सभी पापोसे मुक्त होते हैं। अतिथिसेवाका नाम नृपज्ञ है। इन पांच यचोंको पञ्च | जो पापात्मा पुरुष केवल अपने लिये ही अन्न पाक महायज्ञ कहते हैं। सवोंको यह पञ्चमहायज्ञ करना उचित | करता है, वह.मानो केवल पाप ही भोजन करता है। है। पञ्चमहायज्ञ देखो। श्रद्धाभक्तिपूर्वक जो वेदविहित. कार्य करते हैं, वें सभी ___ यज्ञादि कर्म द्वारा ही जीव संसार वधनमें फंस | पापोंसे छुटकारा पाते हैं। देवताका चढ़ाया हुआ जाते और विद्या द्वारा उससे मुक्ति-लाभ करते हैं। प्रसाद खानेसे मनुष्य पवित्र होता है। जो केवल.अपना इससे साधारणतः यही समझा जाता है, कि यज्ञादि हो पेट भरनेकी फिक्रमें रहता है, वह पञ्चशूनादि पापोंसे कर्मोंका त्याग करना श्रेय है। किन्तु इस संदेहको दूर निस्तार नहीं पाता। गृहस्थोंके घरमें ऊखल, जाता, करनेके लिये भगवान्ने कहा है, कि 'यज्ञो वै विष्णुः' इस चूल्हा, जलकी कलसी और भाड़ ये पांच जीबहिसाके 'श्रुतिके अनुसार जो यज्ञ भगवान के उद्देश्य से किया जाता | स्थान हैं ; इन्हें पञ्चशूना कहते हैं। इस.हिंसाजन्य :