पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४४९

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यज्ञ ब्रह्मार्पणाः ब्रह्महविव्र माग्नौ ब्रह्मणाहूत। कर्ता और आहवनीयाग्नि अधिकरण हैं। ऐसे यज्ञादि ब्रह्मैव तेन गन्तव्य ब्रह्मकर्मसमाधिना ।। कर्मोमे ब्रह्मदृष्टिरूप समाधि होनेसे अनुष्टाताको ब्रह्मत्व दैवमेवापरे यज्ञ योगिनः पच्युपासते । ही लाभ होता है। ब्रहमाग्नावपरे यज्ञ यज्ञेनेवोपजुवति ॥ ___ कुछ योगा ऐसे है, जो पूर्वोक्त प्रकारसे दैवया श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुवति । किया करते है । अन्यान्य तत्त्ववेत्ता योगो ब्रह्मरूप अग्नि- शब्दादीनविषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुहवति ॥ मे आत्माका आहुति देते हैं। दर्शपूर्णमास ज्योतिष्टो- सायीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । मादि जिन सब यशोंमे इन्द्र, अग्नि, वायु आदिको तृप्त आत्मसंयमयोगारनौ जुहबति ज्ञानदीपिते। किया जाता है उसका नाम दैवयज्ञ है। फिर 'ब्रह्मघा द्रव्ययज्ञास्तपोयशा योगयज्ञास्तथा परे। 'तत्' रूप ज्वलन्त अनलमे 'त्वं' कप जीवात्माकी आहति स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥" देकर जो यज्ञ किया जाता है उसका नाम शानयक्ष (गीता ४१२३-२८) है। संन्यासि लोग ऐसे ज्ञानयज्ञका अनुष्ठान किया यज्ञादिका परित्याग करना किसोको भी उचित करते है। नहीं है, पर हां फल-कामना-वर्जित हो कर हो उसका फिर कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो थोत्रादि इन्द्रियों की . अनुष्ठान करें। संयमरूप अग्निमे, कुछ शब्दादि विषयराशिको इन्द्रियरूप जो फलकामना-विहीन और कत्तुं त्व-भोक्तृत्वा- अग्निमे आहुति दिया करते हैं। इसका तात्पर्य यह कि ध्यास-वजित है, जिसका चित्त शानस्वरूप ब्रह्ममे लीन | यम, नियम, आसन, प्राणायामादि करके प्रत्याहारपरायण है, वे र्याद यचादि कर्मों की रक्षा करनेके लिये यज्ञादि पुरुष श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियको शब्दादि विषयसे निवृत्त कर्माका अनुष्ठान करे, तो वह कर्म फल सहित विनष्ट | करके संयमरूप अग्निमें होम करते हैं। फिर कोई होता है। इसका तात्पर्य यह, कि जिनके फलभोगको कोई योगी इन्द्रियोंके कर्म और प्राणादिका कर्म- चाह नहीं है, मैं कर्ता, मैं भोक्ता यह अध्यास भी जिनके | राशिको ज्ञानोहोपत आत्मसंयम योगरूप अग्निमे होम नहीं है. 'तत्त्वमसि' महावाक्यप्रतिपाद्य ब्रह्म और आत्मा- किया करते हैं। मे प्रभेद न मानती हुई जिसकी चित्तवृत्ति आत्मवृत्तिमे | कोई कोई व्यक्ति द्रष्यत्याग यक्षका कोई तपोयनका, विलीन है, वे यदि प्रारब्धवशतः अथवा लोकानुग्रहार्थ कोई योगरूप यज्ञका, कोई घेदाभ्यासकप यज्ञका, कोई ज्योतिष्टोमादि क्रियाका अनुष्ठान करें, तो उनके यज्ञादि ज्ञानरूप यज्ञका अथवा दूढवतरूप यक्षका अनुष्ठान करते कर्म फल सहित विनष्ट होते है अर्थात् ऐसे कर्मों से उसे हैं। इस प्रकार विभिन्न प्रकृतिके मनुष्य विभिन्न प्रकार- .फिर बद्ध होना नहीं पड़ता। के यज्ञका अनुष्ठान किया करते हैं। कूप तड़ाग खुद ___ आहुति देना ब्रह्म है, घृत भी ब्रह्म है, फिर ब्रह्मरूप | वाने, देवमन्दिरादि बनवाने, भूखोंको अन्न देने, धर्म- अग्निमें ब्रह्मरूप होता जो होम करते हैं, वे भी ब्रह्म हैं | शालादि वनवाने, शरणागत जावोंकी रक्षा करने तथा तथा यज्ञादि द्वारा लभ्य स्वर्गादि भो ब्रह्म है, ऐसे यज्ञादि श्रौतविधानोक्त विविध दान करनेका नाम दृष्ययक्ष है। कर्मों मे जिनकी ब्रह्मबुद्धि है, वे ही ब्रह्मको लाभ करते । कृच्छ चान्द्रायणादि साधन और क्षुधा तृष्णा शीत उष्ण हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान और अधिकरण इन सहिष्णुताका नाम तपोयज्ञचित्तवृत्तिके निरोधरूप पांच प्रकारके कारकोंसे यज्ञरूप क्रिया सम्पन्न होती है। अष्टाङ्गयोगसाधनका नाम योगयक्ष ; यम, नियम, आसन, इन्द्रादि देवताके उद्देशसे घृतादि त्यागका नाम याग है। प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि धारण इन्द्रादि देवताके उद्देशसे जो घृतादि दान किया जाता है कर गुरुशुश्रूषापूर्वक श्रद्धाके साथ ऋणादि वेदाभ्यासका उसका नाम सम्प्रदान है। यज्ञका घृतादि हो हविः, नाम वेदयज्ञ ; गूढार्थयुक्तिपूर्वक वेदार्थ निश्चयावधारण- का नाम ज्ञानयह, फिसो नियममें जरा भी लुटि न हो, इस घृतादिका प्रक्षेप हो कर्म, जुहु आदि करण, मध्वप्यु