पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४३७

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४३४ यक्ष्या माणमें निकलता है। अतिरिक्त कफ और रक्तवमनसे | उपद्रव रहनेसे धनियां, पीपल, सोंठ. शालपणी, पिठवन, जब शुक्र और ओज पदार्थ क्षीण हो जाता है, तब रक्त भटकटैया, कटैया, गोखरू, वेलकी छाल, सोनापाठेको नाव तथा पाच, पृष्ठ और कटिमें वेदना होती है। यह ) छाल, गाम्मारी, पढ़ारकी छाल, गनियारोकी छाल इस उरक्षित रोग भी यक्ष्माके अन्दर है। जब तक इसके | सब द्रव्योंका काढ़ा सेवन करनेसे बहुत उपकार होता सभी लक्षण दिखाई न दें अथच रोगीका वल और वर्ण है। अलावा इसके लवङ्गादिचूर्ण, सितोपलादिलेह, गृह- ठीक रहे तथा रोग पुराना न हो तभी तक यह रोग | द्वासावलेह, च्यवनप्राश, द्राक्षारिष्ट, वृहत्चन्द्रामृतरस, साध्य है । एक वर्ष बीतने पर ही रोग खराव हो क्षयकेशरी, मृगाङ्गरस, महामृगाङ्गरस, राजमृगाइरस, जाता है। फिर सभी लक्षण दिखाई देनेसे रोगी दुर्बल काञ्चनाभरस, रसेन्द्र और धृहद्रसेन्द्रगुड़िका, हेमगर्भ होता है। अधिक दिनों तक भी यह विना इलाजके रहे पोट्टलोरस, सर्वाङ्गसुन्दररस, अजापञ्चकघृत, वलागत, तो असाध्य हो जाता है। जीवन्त्याद्यघृत और महानन्दादि तैल इन सव औषधका यमरोग नितान्त दुश्चिकित्स्य है। रोगोके वलको प्रयोग रोगकी अवस्था देख कर करना चाहिये। रक्त रक्षा और मलरोध रखनेमें चिकित्सकको सर्वदा होशि- चमन यदि होता रहे, तो मृगनाभिसंयुक्त औषधका यार रहना चाहिए। कभी भी विरेचक औषधका प्रयोग प्रयोग न करे। स्वरको हालतमें धो वा तेलका प्रयोग न करे। पर हां, एकवारगी मलवद्ध होनेसे मृदुविरेचक | बहुत अनिष्टकर है। (सुश्रुत यक्ष्मरोगधि०) औषध दिया जा सकता है। वकरेका मांस खाना, वकरी- भावप्रकाश, भैवज्यरत्नावली, चरक, चक्रदत्त आदिमें का दूध पीना, चीनीके साथ वकरीका दूध घी पीना, | इस रोगके अनेक औषध और मुष्टियोगको व्यवस्था है। वकरया हरिणके गोद में पड़ा रहना तथा विछापनके | विस्तार हो जानेके भयसे उनका उल्लेख यहां पर नहीं पास हरिण या वकरा रखना यक्ष्मरोगीके लिये वड़ा उप किया गया। चिकित्सकको चाहिये कि, सोच विचार कारक है। रोगी यदि कश, हो जाय, तो चीनी और कर दोपके वलावल के अनुसार इस रोगको चिकित्सा मधुके साथ उसे मक्खन खानेको देना उचित है । करं। अगर मस्तकमें, पंजरे में या कंधे दर्द. रहे, तो सोयाँ; इस रोगका पथ्यापथ्य-रागीका अग्निवल क्षीण मुलेठी, कुट, तगर और सफेद चन्दन, इन्हें पकन पीस नहीं होनेसे दिनमें पुराना बारीक चावल, मूंग- फर धी मिला। पोछे उसे गरम कर प्रलेप दे। इससे को दाल, बकरे और हरिणका मांस तथा परवल, वेदनाकी बहुत कुछ शान्ति होती है। अथवा विजवंद, बैंगन, इमर, सहिजन और पुराने कुम्हड़े को तर- रास्ना, नोल, मुलेठो और घी ये सव द्रव्य अथवा गुग्गुल कारी खानेको दे। तरकारो आदिको घी और सैन्धव- देवर दारु, श्वेतचन्दन, नागकेशर और घृत अथवा क्षीर- लवणके साथ रोंधना उचित हैं। रातको जौ या कंकोली; विजबंद, भूमिकुष्माण्ड, एलवालू और पुनर्णवा, गेहूं की रोटो, मोहनभोग, ऊपर कही गई तरकारी, वकरी ये पांच द्रध्या अथवा शतमूली, क्षीरकंकोली, गन्धतृण, का दूध अथवा थोड़ा गायका दूध दिया जा सकता है। मुलेठी और घी, इन्हें एक साथ पीस कर उष्ण प्रलेप श्लेष्माका प्रकोप रहनेमे दिनमें भी अन्न न दे कर रोटी दे। इससे मस्तक, पार्श्व और स्कन्धकी पोड़ा दूर होती | देना उचित है । अग्निमान्य होनेसे दिनमें भात वा है। रक वमन दूर करने के लिये आध तोला मधुके साथ रोटो और रातमें थोड़ा दूध मिला हुमा सागूदाना, २ तोला आलनेका जल या २ तोला कुकसिमाका रस | अरारोट और वारली खानेको देवे । यदि वह भी अच्छी पिलाये। रक्तपित्त रोगमें जो सव योग वा औषध रक्त तरह न पचे तो दोनों शाम सागूदाना देना अच्छा है। वमन दूर करने के लिये कहे गये हैं, उनमेसे जो सव. ऐसी हालतमें जौ २ तोला, वकरेका मांस ८ तोला और किया ज्वरादिके अविरोधी हैं उनका भी प्रयोग किया | जल ६ तोला इन्हें एकत्र कर पाक करे। पोछे २४ जाता है। पार्श्वभूल ज्वर श्वास और प्रतिश्याय आदि | तोला जव वच जाय, तब उसे उतार कर छान ले। उस