पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३६९

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३६६ पोक्ष जन्म लेता है । इस लोकमें आने वा अवरोहको प्रणाली , न्यायमें रेतःसे. ककारिकत्तक भक्षित हो कर रेतके इस प्रकार है । चन्द्रमण्डलमें उपभोगके लिये कर्मका क्षय साथ स्त्री के गर्भाशयमें प्रविष्ट हो कर रेत गिरानेवालेका होनेसे, घृतकाठिन्यके विलयकी तरह उसका चन्द्र- आकार धारण करता है। अनुशयी जीव उक्त प्रकारसे लोकीय शरीरारस्मक जल विलीन हो कर भाकाशमें माताके गर्भाशयमें प्रविष्ट हो मनपुरीपादि द्वारा उपहित चला जाता है। उस जल के साथ जीव भी आकाशमें | माताके उदर में एक दिन नहीं', दो दिन नहीं, दश मास पहुंचता है। आकाशकी तरह सूक्ष्मायस्था प्राप्त वा रह कर बड़े कष्टसे माताके उदरसे बाहर निकलता है। आकाशभूत जीव उस जलके साथ वायुको प्राप्त होता जहां पर मुहत भर भी ठहरना कप्टकर है, वहां दश दश है। वायु द्वारा इधर उधर सञ्चालित हो कर शरीरा- मास ठहरना कैसा कटकर होगा पाठक स्वयं समझ रम्भक जलके साथ जीव वायुभाव में आनेके बाद धोरे सकते हैं। धीरे धूमभाव वा बाप भावापन्न होता है। धूम हो | पेड़ पर चढ़ा हुआ आदमी यदि हठात् गिर जाय, कर वह अभ्रभावापन्न, अभ्रभावापन्न हो कर मेघभावा- तो गिरनेके समय उसे जिस प्रकार ज्ञान नहीं रहता पन्न वा वर्षणयोग्यतापन्न मेघ भावापन्न होता है । चन्द्रमण्डलसे उतरते समय अनुशयियोंका भी उसी उन्नत प्रदेशमें मेघसे वृष्टि होती है। वृष्टिके साथ पृथ्वी प्रकार ज्ञान जाता रहता है। क्योंकि, उस समय उनके समागत जीवऔषधि, वनस्पति, घान, जौ, तिल आदि | भोगहेतुभूत कर्म उत्पन्न नहीं होता। नाना रूपापन्न तथा पर्वततट, दुर्गमस्थान, नदी, समुद्र, | जो स्वर्गभोगार्थ चन्द्रमण्डलमें आरोहण नहीं करते 'अरण्य और महादेशादिमें सन्निविष्ट होता हैं। जो एक देहसे दूसरी देहमें जाते हैं उनके मृत्युकालमें - अनुशमी वा कर्मशेषवान् जोव बड़े कप्टसे वहांसे देहान्तरतापक कर्मका वृत्तिलाभ होता है इसीसे उनके निकलता है। वर्षादि भावते जीवका निकलना बड़ा ज्ञान रहता है। प्रतिपत्तव्य देह विषयमें दोघंतर भावना कप्रसाध्य है। क्योंकि, वर्षाधाराके साथ जीव पर्वततट) उत्पन्न होती है। पर गिर कर नदीमें मिलता है। नदी द्वारा वह समुद्रमें ! ____ जो इष्टादिकारी नहीं हैं, प्रत्युत अनिष्टकारी वा मिल कर पीतजलके साथ मकरादिको कुक्षिमें घुस जाता पापकर्मानुष्टायो हैं, वे चन्द्रमण्डलमें जाने नहीं पाते। है। वह मकरादि अन्य जलजन्तु द्वारा खाये जाने पर वे यमालयमें जा कर अपने कर्म के अनुरूप यमनिर्दिष्ट उसके साथ वह उसीको कुक्षिमें चला जाता है। काल- यातनाका अनुभव कर जन्मग्रहण के लिये इस लोकमें 'कमसे मकरादि जन्तुके साथ समुदमें विलीन हो कर आते हैं। जो विद्याकर्मशून्य हैं उनकी लोकान्तरमें गति जलभावापन्न होता है। इस अवस्थामें समुद्र-जलके | वा लोकान्तरसे आगति नहीं होतो। छोटे छोटे कीट साथ मेघ द्वारा आकृष्ट हो कर फिरसे वृष्टिके समय पतङ्गोंका इस लोकमें ही वार बार जन्ममरण होता है। मरुदेशमें, शिलातट पर वा अगम्यप्रदेशमें पतित हो कर यह विचित्र संसारगति कितनी बार हुआ करती है, रहता है। फिर वहां भी पहलेकी तरह भिन्न भिन्न | उसकी शुमार नहीं । इस संसारगतिका निदे श करके जन्तुके पेट में चला जाता हैं। कभी कभी तो असक्ष्य | श्रुतिने कहा है, 'तस्मान्जुगुप्सेत' अव ससारगात एसा स्थावररूपमें उत्पन्न हो कर वहीं पर सूख जाता है। कष्टकर है, कि छोटे छोटे जन्तु लगातार जन्ममरणजनित भक्ष्य स्थावररूपमें वा शस्यादि रूपमें उत्पन्न दुःख भोग करनेके लिये हो सर्वदा प्रस्तुत रहते हैं, तब होनेसे भी दूसरा शरीर सहज में प्राप्त नहीं होता। क्योंकि वैराग्यका अवलम्बन करना ही उचित है। जिससे इस उर्ध्वरेता, वालक, वृद्ध वाक्लीवादि द्वारा भक्षित शस्यादि- प्रकार भयङ्कर संसारसागरमें पुनः पुनः उतरना न पड़े के साथ अनुशमी, उनके कुक्षिगत होने पर भी मलादि वैसा ही करना सर्वथानुश्रेयस्कर है। जिस शरीरके के साथ निकल कर वह मिट्टोके रूपमें परिणत होनेके लिये लोग अनेक प्रकारके दुष्कर्म कर बैठते हैं उस समय पुनः शस्यादि भावापन्न होता है। काकतालीय। शरीरको अवस्थाकी यदि अच्छी तरह पालोचनाको