पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३६८

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मोन १६५ विनाश अदृष्टचर है। जिस क्रमसे सीढ़ीसे ऊपर चढ़ते । कुत्ते, सूबर और चण्डाल आदि योनिमें जन्म लेते हैं। हैं, उसी क्रमसे उतरना भी पड़ता है। अतएव यह पञ्चाग्निविद्योपासक, सगुण ब्रह्मोपासक वा प्रतीको- कहना अनुचित नहीं होगा, कि प्रलयकालमें पृथिवो जल- पासनानिरत धर्मात्मा गृहस्थ दक्षिण मार्गा वा पितृ- में, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमैं, आकाश यानमें जाते हैं । नैष्ठिक ब्रह्मचारो, वानप्रस्थ और अहङ्कारमें और अहङ्कार अज्ञान वा अविद्या में लोन होता संन्यासाश्रमी इनके लिये उत्तममार्ग ही कहा गया है। है। प्रलयके विषयमें दाशनिकोंके मध्य मतभेद देखा, उत्तरमार्गगामी पहले अञ्चिदेवतासे अहर्देवता, अहर्देवता- जाता है। प्रलय देखो। से शुक्लपक्षदेवता, शुक्लपक्षदेवतासे उत्तरायण देवता, उत्त- मीमांसक आचाय लोग प्रलयको स्वीकार नहीं करते | रायण देवतासे संवत्सर देवता, संवत्सर देवतासे नैयायिक प्रवर उदयनाचायने नाना प्रकारके अनुमानों- आदित्य देवता, आदित्यसे चन्द्र और चन्द्रसे विद्युत. की सहायतासे प्रलयका अस्तित्व स्वीकार किया है। देवताको प्राप्त होते हैं। देवयानगामी जीव जब विद्य - पुराणशास्त्रमें प्रलयको मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया है। देवताको प्राप्त होते हैं, तव ब्रह्मलोकसे कोई अमानव फिर भी महाप्रलय वा आत्यन्तिक प्रलयके विषयों पुरुष उपस्थित हो कर उत्तरभागगामी जोषको सत्य- आचार्योका एक मत नहीं है। कोई कोई नैयायिक लोकमें ले जाते हैं तथा कार्यब्रह्मको प्राप्त करा देते हैं। आचार्य महाप्रलयको स्वीकार नहीं करते। उनका यह उत्तरमार्ग देवपथ वा ब्रह्मपथ नामसे प्रसिद्ध है। कहना है, कि महाप्रलयका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इससे मालूम होता है, कि जो कार्यब्रह्मप्राप्तिके लायक है पाताल-भाष्यकारने आत्यन्तिक प्रलयको स्वीकार नहीं। उनकी उत्तर मार्गमें गति होती है । छान्दोग्य उपनिषद् किया है, ऐसा मालूम होता है। बाचस्पतिमिश्रने भो ऐसा ही कहा है । किसी किसी उपनिषद्में कुछ तत्त्ववैशारदी ग्रन्थमें कहा है, कि श्रुति, स्मृति इतिहास | कुछ वैलक्षण्य भी देखा जाता है। और पुराणमें सर्ग प्रतिसगपरम्परासे अनादित्व और उत्तरमार्गका विषय कहा गया। अब दक्षिणमार्ग- अनन्तत्व श्रत हुआ है। प्रकृति के विकारों को नित्यता का विषय कहा जाता है । जो प्राममें इए, पूर्त और भी शास्त्रसिद्ध है । अतएव आत्यन्तिक प्रलयको दान करते हैं अर्थात् जो केवल कर्मानुष्ठानतत्पर हैं, शास्त्रानुकूल नहीं कह सकते। क्रमिक विवेकख्याति वेमरने पर पहले धूमाभिमानी देवताको, पोछे धूम- द्वारा धोरे धीरे सभी जीव मुक्त होंगे, अतः एक ही देवतासे रात्रिदेवता, रालिसे कृष्णपक्षदेवता, कृष्णपक्ष. समयमें संसारका उछेद हो जायगा, यह कल्पना भी | से दक्षिणायनदेवता, दक्षिणायनसे पितृलोक, पितृलोकसे प्राचीन प्रतीत नहीं होती। क्योंकि सभी जीव अनन्त। आकाश और आकाशसे चन्द्रको प्राप्त होते है । यहां पर और असंख्य है। इसी प्रकार वे आत्यन्तिक प्रलयको भो पहलेको तरह यह समझना होगा, कि मृतजीवको स्वीकार नहीं करते। किन्तु वैदान्तिक आचार्य लोग धूमदेवताके समीप ले जाते हैं। इसी प्रकार एक आत्यन्तिक प्रलयको निर्विवाद स्वीकार कर गये हैं। | दूसरेके पास पहुंचाया जाता है। चन्द्रमण्डलमें उसको . सृष्टि और प्रलयका विषय कहा गया, अब स्थिति योगांपयोगो जलमय देह वनती है। कालोन संसारगतिका विषय संक्षेपमें कहता हूँ। जो ___ आरोह कहा गया, अव अवरोहका विषय कहता हूँ। धर्मात्मा हैं वे उत्तरमार्ग ( देवयान ) अथवा दक्षिणमार्ग | आरोहका अर्थ है इस लोकसे परलोक जाना और अव- (पितृयान ) इन दो मार्गोमेंसे किसी एक मार्गका अब रोहका अर्थ है परलोकसे इस लोकमें आना। लम्वन कर परलोक जाते और पुण्यानुरूप फलभोग जिस पुण्यकर्मके फलभोगके लिये जोव चन्द्रलोकमें करते हैं। फलभोगके बाद वे पुनः मर्त्यलोकमें मात | जाता है, फलके उपभोग द्वारा वह कम जव क्षयको प्राप्त हैं तथा सञ्चित शुभकर्मके तारतम्यानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय होता है, तव जीव क्षणकालमें चन्द्रलोकमें नहीं रह । वा वैश्य हो कर अथवा सञ्चित पापकर्म के अनुसार सकता। उस समय जीव पुनः इस लोकमें आ कर ' Vol. XVI11 92