पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३६४

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३६१ मोत जो तत्त्वज्ञान होता है, वह परोक्ष तत्त्वज्ञान है । परोक्ष। यह नित्य वस्तु है, यह अनित्य है, इसका सम्यक् ज्ञान, तत्वज्ञान अपरोक्ष भ्रमका निवर्तक नहीं होता | यह मूत्रभोगविराग अर्थात् वैराग्य, शमदमादि सम्पत्ति और रज्जु है, इस प्रकार जव तक प्रत्यक्षात्मक तत्त्वज्ञान नहीं मुमुक्षुत्व ऐसे चार साधनसम्पन्न पुरुष ब्रह्मजिज्ञासा- होगा, तब तक उसका सर्पभ्रम दूर नहीं होगा, उसे उस के अधिकारी कहे गये है। किन्तु इनमेंसे नित्यानित्य रज्जुके पास जानेका साहस नहीं होगा। दिक मोह ! वस्तुविवेक चैराग्यका हेतु है तथा शमदमादि वैराग्यका आदि स्थानोंमे भी इसी प्रकार देखनेमे आता है। अत- कार्य है। अतएव वैराग्यकी गणना मुख्य साधन रूपमें एव यह सिट हुआ. कि प्रत्यक्ष मियाज्ञान परोसतत्त्व- होना उचित है। एकमात्र वैराग्य ही ब्रह्मविद्याके अधि- ज्ञानके द्वारा दूर नहीं होगा। प्रत्यक्ष मिथ्याज्ञानको । कारका मुख्य साधन है। इसी अभिप्राय पर मण्डूकोप- निवृत्ति के लिये प्रत्यक्ष तत्वज्ञानको आवश्यकता है।। निषदमें कहा है- ____ परीक्ष्य लोकान कर्मचितान ब्राह्मयो निर्वेदमायानास्त्यकृता देहादिमें आत्मवुद्धि आदि संसारका हेतु है। वह प्रत्यक्षात्मक मिथ्याज्ञान है। उसकी निवृत्तिके लिये | कृतेन । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्तियं प्रत्यक्षात्मक आत्मतत्त्वज्ञान सम्पादन करना होगा। ब्रह्मनिष्ठन् । शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार जो आत्मतत्त्वज्ञान सभी कर्मफल अनित्य है, कर्म द्वारा नित्य पदार्थ होता है, वह परोक्ष है, प्रत्यक्षात्मक नहीं। इस कारण | प्राप्त नहीं हो सकता। अतः ब्राह्मणको वैराग्यको अव- शास्त्र अध्ययन करने वा गुरुके उपदेशसे आत्मतत्त्व लम्वन करना चाहिये। विरक ब्राह्मणको नित्यवस्तु मालूम हो जाने पर भी उससे देहादिमे आत्मवुद्धिको जाननेके लिये ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय गुरुके पास जाना निवृत्ति नहीं होती, मात्मतत्त्व-साक्षात्कारको अपेक्षा उचित है। रहती है। विवेक चूडामणिमें भगवान् शङ्कराचार्य ने कहा है,- आत्मतत्त्व-साक्षात्कारके अनेक उपाय शास्त्रोंमे "वैराग्यश्च मुमुक्षत्व' तीन यस्योपजायते। कहे गये हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन ही आत्म तस्मिन्नेवार्यवन्तः स्युः फलवन्तः शमादयः ॥" साक्षात्कारका प्रधान उपाय है। श्रवण शब्दका अर्थ जिसके तीव्र वैराग्य और तीव्र मुमुक्षुत्व प्राप्त हुआ है अद्वितीयब्रह्ममें वेदान्तवाक्यके तात्पर्यका अवधारण। है, शमादि साधन उसीसे सफलता लांभ करता है। मनन शन्दसे युक्ति द्वारा श्रुत्युक्त अर्थके सम्मावितत्वका पहले ही कहा जा चुका है, कि वैरोग्य ही ब्रह्मविद्याका अनुसन्धान समझा जाता है। अर्थात् अतिने जो कहा | अभ्यहित साधन है। सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी है वह सम्भवपर है, युक्तिद्वारा इस प्रकार अवधारण, चिन्ता, संसारगतिकी पर्यालोचना तथा विषयदोष करनेका नाम मनन है। निदिध्यासनका अर्थ है | दर्शनादि भी वैराग्यका उपाय है। शास्त्रमें श्रुत तथा युक्ति द्वारा सम्भावित विषयको लगा सांख्यकारिकामें भी भगवान कृष्णने कहा है,- तार चिन्ता। "पुरुषार्थज्ञानमिदं गुह्य परमर्षिया समाख्यातम् । "आत्मा वा अरे! द्रष्टव्य:श्रोतव्यो मन्तव्यः निदि स्थित्युत्पत्तिप्रलयाश्चिन्त्यन्ते यत्र भतानाम् ॥" ध्यासितव्यः ।" (श्रुति) जिस मोक्षजनक शामके लिये प्राणियोंकी स्थिति, "श्रोतव्यः अतिवाक्येभ्यः मन्तव्यम्वोपपत्तिमिः। । उत्पत्ति और प्रलयकी चिन्ता की जाती है उसीको पर- भत्वा च सततं ध्येयः एते दर्शनहेतवः ॥” (विज्ञानमित) | मर्षिने गोपनीय पुरुषार्थ ज्ञान कहा है। ये सब विषय आदर पूर्वक अविच्छे दसे बहुत दिनों यहां पर स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयको चिन्ताको तक अनुष्ठित होनेसे आत्मतत्त्व-साक्षात्कार होता है। तत्त्वज्ञानका हेतु वतलाया गया है। छान्दोग्य उपनिषद् दीर्घ काल श्रवणादिका अनुशीलन तीव्र विषय वैराग्य में पञ्चाग्नि विद्या द्वारा संसारगतिको ले कर उपसंहारमें भिन्न नहीं हो सकता। नित्यानित्यवस्तुविवेक अर्थात् / कहा है, कि "तस्मान्जुगुप्सेव" अर्थात् संसारगति बहुत Vol. XVIII 1