पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२९८

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२५ मेढस्वच-पेद तुदसिसिचमिहत्तदशनहः करणे। पा २२२१८२) इति हुन् । सागको तरह राई जाती हैं। इसकी फलियोंके दाने १ शिश्न, लिङ्ग। यह गर्भस्थित वालकके सातवें महीने में | मसाले और औषधके काममें आते हैं और देखनेमें कुछ होता है। चौखूटे होते है । इसकी फसल जाड़े में तैयार होती है। पञ्चभूतों से एक पृथिवीके रजोगुणांशसे इस शिश्न- इसका गुण-कटु, उष्ण, अरुचिनाशक, दीप्तिकारक, को उत्पत्ति होती है। रजोऽशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमात् | वातघ्न तथा रक्तपितप्रकोपन माना गया है। कर्मेन्द्रियाणि तु ।" (पञ्चदशी) जिसका मेढ खाभाविक मेथिनी ( स. स्त्रो० ) मेथतोति मेथ-णिनि-डीए । अनावृत रहता है वह महापातको समझा जाता है। मेथिका, मेथी। नरकभोगके बाद वह महापापके कुछ चिह्न और व्याधि मेथिष्ठ (संत्रि) मेथिके पार्श्व में अवस्थित । ले कर जन्म लेता है और दुश्चर्मा कहलाता है। मेथो (स. स्त्री० ) मेथि-कृदिकारादिति पक्षे डीम् । "शृणु कुष्ठगण विप्र उत्तरोत्तरतो गुरु । मेथिका । मेथिका देखो। विञ्चिका तु दुश्चर्मा चर्चरीय स्तृतीयकः ॥" | मेथीमोदक (स० पु०) ग्रहणीरोगकी एक औषध । 'दुश्चर्मा स्वभावतोऽनावृतमः' (स्मृति) प्रस्तुत प्रणाली-त्रिकुटु, त्रिफला, मोथा, जीरा, कृष्ण- २ मेष, मेढ़ा। जीरा, धनिया, कटफल, कुट, कर्कटङ्गी, यमानी, सैन्धव, मेढत्वच् (सं० स्त्रो०) मेदस्य त्वक् । लिङ्गाच्छादक चम', विटलवण, तालिशपत्र, नागेश्वर, तेजपत्र, दारुचीनी, वह चमड़ा जिससे लिङ्ग ढका रहता है। , इलायची, जायफल, जैत्री लवङ्ग, मुरामांसी, कपूर, रक्त- मेढ़रोग (सं० पु० ) उपस्थरोग, लिङ्गरोग। चन्दन, सवका वरावर वरावर चूर्ण। कुल चूर्ण मिला मेदश्टङ्गो ( सं० स्त्रो०) मेढस्य शृङ्गमिव शृङ्गमस्याः कर जितना हो उसे दुने पुराने गुड़ और उपयुक्त जलमें गौरादित्वात् ङीष । मेषश्चङ्गी वृक्ष, मे ढासिंगी। पाक करें। पाक सिद्ध हो जाने पर कुछ घी और मधु मेढासिंगी देखो। ऊपरसे डाल दे। यह अग्निकारक और संग्रहणी गादि मेण्ठ (सं० पु० ) हस्तिपक, हाथीवान। रोगमें बहुत उपकारी है। मेण्ड (सं० पु० ) हस्तिपक, हाथीवान। मेथोमोदक (संपु०) वाजीकरणाध्याय। मेण्ढ (सं० पु० ) मेप, मेढा। मेथौरी (हिं० स्त्री० ) मेथीका साग मिला कर बनाई हुई मेतार्य (सं० पु० ) जैनमतानुसार ग्यारह गणाधिपोंमेसे | उर्दकी पोठोकी बरी। एका मेद (सं० पु० ) मे द्यति स्निातीति मिद्- अख् । १ मेतृ (सं० यु०) स्तम्भ-रोपणकर्ता, मोनार खड़ा करने- शरीरके अन्दरको वपा नामक धातु, चरवी। सुश्रुतके वाला। अनुसार मेद मांससे उत्पन्न धातु है जिससे अस्थि मेधा (सं० स्त्री० ) मेथिका, मेथी। वनती है। भावप्रकाश आदि वैद्यक प्रन्थों में लिखा है, मेथि (सं० पु०) मेथन्ते पशवोऽत्रेति मेथ-सङ्गे ( सर्व कि जब शरीरके अन्दरकी स्वाभाविक अग्निसे.मांसका धातुभ्य इन् । उण ४१११७ ) इति इन्। १ खूटा जिसमें परिपाक होता है, तव मेद बनता है। इसके इकट्ठा होने- पशु वांधे जाते हैं। (स्त्री०) २ मोथिका, मेथी। का स्थान उदर है। मेदस् देखो। २ आलम्वुपा, गोरस्न- मेथिका ( सं० स्त्री० ) मेथतीति मेथ ण्वुल टापि अत मुंडी।३ ऐरावतकुलजात नागविशेष ।। इत्वं । क्षपविशेष, मेथी । पर्याय-म थिनी, मे थी, "विहङ्गः सायभो मेदः प्रमोदः संहतापनः । दीपनी, वहुमूलिका, वोधिनी, गन्धवीजा, ज्योति, गन्ध ऐरावतकुलादेते प्रविष्टा हव्यवाहनम् ॥" . फला, बल्लरी, चन्द्रिका, मन्था, मिश्रपुष्पो, कैरवो, / . (महाभा० ११५१११) कुञ्चिका, बहुपर्णी, पीतवीजा । यह पौधा भारतवर्षमें प्रायः मोटाई या चरवी वढ़नेका रोग। ५ कस्तुरिका, सर्वत्र होता है, इसकी पत्तियां कुछ गोल होती हैं और कस्तूरी। ६ एक अन्त्यज जाति । इसकी उत्पत्ति मनुः