पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२७९

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२७१ मृदङ्गक-मृदुचर्मिन् जव मारा गया था, तब उसके रक्तसे पृथिवीमण्डल इतना| मस्त्यस्याः मृद-इनि, स्त्रियां ङीप । प्रशस्त मृत्तिका, तरावोर हो गया, कि कीचड़ उठ आया था। भगवान् ब्रह्माने अच्छी मिट्टी। २ मृत्स्ना, गोपीचन्दन । उसी रक्त मिली हुई मिट्टीसे मृदङ्ग बनाया और उसका मृदु (सं०नि०) मृद्यते नंदितु शक्यते इति ब्रद्-(प्रथि- दोनों ओर असुरके चमड़े से मढ़ दिया। उसकी शिरा- भ्रदिभ्रमजा सम्प्रसारणं सलोपश्च। उण, २२६) इति से वेएनी और रज्जु तथा अस्थिसे गुल्म आदि धनाया कु। १ कोमल, मुलायम । २ जो सुनने में कर्कश या गया । त्रिपुरारि महादेव इन्द्रादि देवाताओंसे वेपित हो| अप्रिय न हो। ३ सुकुमार, नाजुक । (स्त्री०) ४ घृत- बड़े आनन्दसे नृत्य करने लगे और गजाननसे नृत्यके कुमारी, घीकुआँर। ५ सफेद जातिपुष्प, जाही नामक साथ ताल देनेको कहा। उसी समयसे मृदङ्गको सृष्टि | फूलका पौधा। ६हण धूमपानविशेष । ७ मृत्युञ्जय हुई है । उस समयका मृदङ्ग देखने में आजकलके पखावज- राजपुत्न। (विष्णु. ४२११३) के जैसा था। बहुतेरे पखावजको ही मृदङ्ग कहते है। मृदुक (सं०नि०) नम्र, मुलायम । कालक्रमसे मृदङ्गका निर्माण-कौशल और सौष्ठव बहुत मृदुकण्टक (सं० पु० ) श्वेतझिएटी, कटसरैया । कुछ बदल गया है। सङ्गीतदर्पणकारके मतानुसार मृदुकण्टकफला (सं. स्त्री० ) कर्कटी लता, ककड़ी। मट्टोका बता हुआ यन्त्र सहजमें फूट जानेके भयले द्वापर- मृदुकमै (सं० क्ली० ) कठिनको मुलायम करना (वि०)२ युगमें कृष्णलीलाके समयसे वह काठका बनाया जाने मृदु कार्यकारी, नरम काम करनेवाली। लगा। मृदुकृष्णायस (सं० क्ली० ) मृदु च तत् कृष्णायसं चेति । मृदङ्गक (सं० लो०) छन्दोभेद । इसके प्रति चरणमें १५ | सीसक, सोसा। अक्षर करके होते है। १, २, ४, ८, ११, १३, १५वां वर्ण मृदुकोष्ठ (सं० पु०) कोमल कोष्ठ । गुरु और शेष लघु होते हैं। मृदुक्रिया (सं० स्त्री०) १ धीरे धीरे कर्मसमाधान, आहिस्ता मृदङ्गफल (सं० पु०) मृदङ्ग स्तदाकृति फलमस्य। पनस- आहिस्ता काम करना। फल, करहल। मृदुखुर (सं० पु० ) घोड़ोंके खुरका एक रोग। मृदङ्गलिनी (सं० स्त्री०) मृदङ्गयत् फलमस्त्यस्याः "म दुखुरा विख्यातो म दुर्यस्य खुरो भवेत् ।" इनि डोप च । कोषातको, तरोई। (जयदत्त ३६ म०) मृदङ्गी (सं० स्त्री० ) मृदङ्गः तदाकारफलमस्त्वस्या इति । ____घोड़ोंक खुर अत्यन्त मृदु अर्थात् कोमल होनेसे मृदङ्ग अर्श आधच् डोष् च । कोषातकी, तरोई। यह रोग होता है। मृदर (सं० पु. ) मृदुर-अच् ( दरादयश्च । उण् ५॥४१) मृदुगण (सं० पु० ) मृदृणां गणः। नक्षत्रोंका एक गण इति निपात्यते । १ व्याधि, रोग। २ विल। (नि.) जिसमें चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा और रेवती ये चार ३क्षणस्थायो। ४ क्रीड़नशील। नक्षत्र हैं। मृदय (सं० क्लो० ) नाटककी भापामें गुणके साथ दोष ____चित्रामित्रमृगान्तभं मृदुभंगण" ( ज्योतिस्तत्त्व ) के वैषस्यका प्रदर्शन। मृदुगंधिक (सं० पु०) १ गुल्मभेद । (त्रि०) २ मृदुगन्ध- मृदा (सं० स्त्री०) मृद्-टाप् । मृत्तिका, मिट्टी। विशिष्ट । मृदाकर (सं० पु०) वज्र। मृदुगमना (सं० स्त्री०) मृदुगमनमस्याः।१हंसी। (त्रि०) हदाया (सं० स्त्री० ) सौराष्ट्रमृत्तिका, गोपीचन्दन। २ मन्दगमनविशिष्ट, धीमी चालसे जानेवाली। मृदित (सं०नि०) मृद-धातोः कर्मणि क। चूर्णीकृत, मृदुग्रन्थि (सं० पु० ) मजर तृण, एक प्रकारी घास जिस- में बहुतसी गांठे होती हैं। चूर चूर किया हुआ। (क्ली० ) २ शूकरोग शूक देखो। | मृदुचर्मिन् (सं० पु० ) मृदु कोमलं चर्म त्वक् तदस्त्यस्य मृदिनी (सं० स्त्री०) मृदभाचे क, मदः चूणीकरण-1 चर्म ( ब्रीह्यादयश्च । पा ५।२१।२ ) इति इनि। १. भूर्जवृक्ष,