पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२४७

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२४४ मृगछाला-मृगनाथ शब्देन रातिशेष ज्ञापयतीति चिट्-णिच् ण्बुल । खट्टास, है। प्रोष्मकालमें जव वायुको तहाँका घनत्व उष्णता. गन्धविलाव। के कारण असमान होता है, तव पृथ्वीके निकटको मृगछाला (हिं० स्त्री०) मृगचर्म । वायु अधिक गरम हो कर ऊपरको उठना चाहती है; मृगजरस (सं० पु० ) एक रसौषध जिसका व्यवहार रक परन्तु ऊपरवालो तहें उसे उठने नहीं देतीं, इस कारण पित्तमें होता है। शोधा हुआ पारा और मृत्तिका लवण | उस वायुकी लहरें पृथ्वोंके समानान्तर वहने लगती हैं। 'अड़ सके रसमें एक दिन मले। वादमें इसका एक मास तक यही लहरें दूरसे देखने में जलपी धारा-सी दिखाई देती उपयुक्त मात्रामें सेवन करनेसे रक्तपित्त रोग जाता है। मृग इससे प्रायः धोखा खाते हैं, इसी कारण इस. रहता है। को मृगतृष्णा, मृगजल आदि कहते है । संस्कृत मृगजल (सं० पु०) मृगतृष्णाकी लहरें। पर्याय-मरीचिका, मृगतृष्णिका, मृगतृष्, मृगतृषा । मृगजहु (सं० पु०) हरिण शिशु, हिरनका बच्चा। (शब्दरत्ना०) मृगजा (सं० स्त्री०) कस्तूरी, मृगनाभि । मृगतृष्ण (सं०स्त्रो०) मृगतृष्णा । मृगजालिका (सं० स्त्री०) मृगाणा जालिका । मृगको वांधने मृगतृष्णिका (सं० स्त्री०) मृगतृष्णा-खार्थे कन्. स्त्रियां का जाल। टॉप, अत इत्वञ्च। मृगतृष्णा। मृगजीवन (सं० पु०) मृगैः पशुभिः जोवतीति जोव-न्यु। "स्रोतोवहां पथि निकामजलामतीत्य । व्याध, मृग द्वारा जोविकानिर्वाह करनेवाला। जातः सखे ! प्रणयवान् मृगतृष्णाकायाम् ॥" मृगजम्म (सं० पु०) १ घोड़े का एक रोग । इसका लक्षण- ___(शकुन्तला ६ अ०) "म गरोगी पदा वाजी जृम्भवान् जायते मुहुः। मृगतोय (सं० क्ली० ) मरु-मरीचिका। म गजम्भ तदा तस्य व्याधि समुपलक्षयेत् ॥" मृगत्व (सं० क्लो०) मृगस्य भावः त्व। मृगका भाव या (जयदत्त ५५ अ०) धर्म । घोड़े के वारंवार भाई करनेसे यह रोग उत्पन्न मृगदंश (सं० पु०) कुक्कुर, कुत्ता । होता है। २ खोये वा चोरी गये हुए धनको खोज। मृगदंशक (सं० पु०) मृगान् पशून दशति दनश ण्वुल् । मृगणा (सं० स्त्री०) मृग-युच् टाप । अपहृत वस्तुओंकी | कुक्कुर, कुत्ता। खोज। मृगदाच (सं० पु०) १ मृगकानन, वह वन जिसमें बहुत मृगण्यु (सं० वि०) पशुसङ्घ, पशुओंका समूह। मृग हों। २ काशीके पास सारनाथ । सारनाथ देखो। मृगतीर्थ (सं० क्लो०.) शारीरक्रिया सम्पादनार्थ वह पथ | मृगदृश् (सं०नि०) मृगस्य दूगिव दृक् यस्य । मृगलोचन, जिस हो कर पुरोहित सवन यागके बाद चलते हैं। मृगाके समान आँखवाला। ( आश्व० श्रौ०५।१२)२ तोर्थ भेद। मृगद्युत् (सं० वि०) मृगेण द्युत् कोड़ा यस्य । मृगया- मृगतृष (सं० स्त्री०) मृगाणां तृट, पिपासा अन जलभासः | कारी, आखेट करनेवाला। कत्वात् । मृगतृष्णा। मृग (सं० वि०) मृगयाकारी, शिकारी। मृगतृषा (सं० स्त्री०) मृगतृष्णा। भृगधर (सं० पु०.) १ चन्द्रमा ।२ राजा प्रसेनजित्के एक "जगन्मृगतृषातुल्यं वीक्ष्येदं क्षणभंगुरम् । प्रधान मन्त्रीका नाम। खजनैः सङ्गतः कुर्यात् धर्माय च सुखाय च ॥" मृगधूम (सं० पु०) एक प्राचीन तीर्थका नाम । __ (कामन्दकी ३।१३) । मृगधूर्त (सं० पु०) मृगेषु पशुषु धूतः वञ्चकत्वात् । शृगाल, मृगतृष्णा (सं० स्त्री०) जलाभासत्वात् मृगाणां तृष्णा विद्यते गोदड़। ऽस्यां। जल वा जलकी लहरों हो वह मिथ्या प्रतीति राक . सं० पु०) मृगधूर्त देखो। जो कभी कभी मरुभूमिमें कड़ी धूप पड़नेके समय होती मृगनाथ (सं० पु०) सिह। 'मृग' शब्दके आगे पति,