पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२४

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मुद्रातत्त्व (पाश्चास) जाने लगा। इस समयकी मुद्रामें फिर कितने काल्प- समयके शिल्पनैपुण्यसे अलङ्कत विशाल कीर्तिस्तम्भ निक व्यक्तियोंको मूर्ति आदि भी अङ्कित देखी जाती हैं। जमीन पर गिर कर धूलमें मिल गये हैं। किन्तु छोटे इनमें से स्मर्णाके होमर (सुप्रसिद्ध कवि), हेलिकार्नस-! छोटे धातुखण्ड पर खोदी हुई उनकी छोटी अनुकृत्ति के हिरोंदोतस, करिन्थके लेहस ( Lais) आदि विशेष आज भी वर्तमान रह कर यथार्थ चित्रका सत्य साक्ष्य - उल्लेखनीय हैं। किसी मुद्रामें ( पेचक-वाहिनी) प्रदान करती है । ग्रीसके नाना स्थानोंमें जो सर्व पल्लास (लक्ष्मीदेवी) वंशीध्वनि करते करते सलिलमय शिल्पकुसुम विकसित हो उठे थे वे अम्लांनं सौन्दर्यले मुकुरमें मुम्ब देखती हैं और मारसियस ( Marsyas): आज भी दश कके मनको मोहते हैं। एक पर्वत परसे टक लगाये उन्हें देख रहे हैं। मुद्राशिल्प भास्कर विद्या और चित्रशिल्पके बीचं. मिस्रके अन्तर्गत अलेकसन्द्रिया नगरीको मुद्रा का सोपानमात्र है। इसे 'रिलीफ' (Relief ) शिल्प आशादेवी ( Hope )-को प्रतिमूर्ति विराजित है। वे कहते हैं। मध्ययुगके पहले तक केवल भास्करता. क्षण क्षणमें नये नये दर्पणमें मुख देखती हैं। की प्रधानता और पीछे चित्रको प्रधानता देखी जाती कुछ दिनोंके बाद जब प्रीसकी शिल्पविद्या उन्नतिकी है। भास्करविद्या आकृतिको ( Character ) तथा चरम सीमा पर पहुंच गई थी, उस समय नाना कारु- . चित्रविद्या भावको (Expression) प्रकाशित करती है। कार्यखचित सुरम्य अट्टालिकासे पूर्ण सुन्दर नगरको आकृति एक विशेषणसे प्रकट की जा सकती है, पर भाव प्रतिमूर्ति मुद्राखण्ड पर अंकित हुई थी। हृदयको अनुभूतिके विना हृदयङ्गम नहीं किया जा जिस समय रोम-साम्राज्य देश देशान्तरमें फैलने लगा, सकता। जो सव भास्कर मूर्तिशिल्पमें भी हृदय-वृत्ति उस समय रोमके उपनिवेशों में लाटिन अक्षरवाली मुद्रा का विकाश दिखाने में समर्थ हैं वे ही लोग अद्वितीय प्रचलित हुई। विस्तीर्ण विशाल रोमसाम्राज्यमें सभी शिल्पी हैं। ग्रीक मुद्रामें इस शिल्पका चरमोत्कर्ष जगह रोमकी आदर्श स्वरूप मुद्राका व्यवहार होने लगा। दिखाई देता है। जो पृथ्वीके वैहारिक शिल्प-इतिहास स्पेनमें इमेरिटा वा मेरिभासे ले कर आसियाकी निनेभ । जानना चाहते हैं उन्हें ग्रीक-मुद्राकी कहानी अवश्य नगरी तक रोमक मुद्राका व्यवहार हुआ था। पढ़नी चाहिये। क्योंकि, पृथ्वीके सभी आदर्श उसमें मुद्रोत्कीर्ण लिपिमाला। चित्रित हैं । प्रीकमुद्राकी लिपिमालामें प्रधानता जिन राजसर- - प्रोकमुद्राशिल्प प्रधानतः तीन.भागोंमें विभक्त है। कार द्वारा उसका प्रचार हुआ उन्हींके नाम देखने में आते प्रथम भागमें मध्य, उत्तर और दक्षिण प्रोस है। उत्तर- हैं। 'माथेन्सी' वा 'साइराफ्युज वासियों की ऐसो प्रीसके मध्य फिर थेस और.माकिदनीया, दक्षिण ग्रीसके . लिपिमाला ही अधिकांश मुद्रामें उत्कीण हैं। किसी मध्य पिलोपनिसस, कोट और साइरिन आदि हैं। द्वितीय किसी मुद्रालिपिका अर्थ है-"आर्थन्सवासीका आथे- भागमें आइओनिय विभाग है । यह उत्तर और निया"-"साइराफ्यूजका परिथुनसा" ग्रीसके अन्तर्गत है । इसके मध्य माइसिया, युलिया और . . . मुद्राशिल्प । . दक्षिणमें रोड्स तथा केरिया है । अलावा. इसके तृतीय पाश्चात्य सभी पण्डितों ने एक स्वरसे कहा है, कि भागमें एशिया-माइनर, पारस्य, फिनिसिया और साइ. ग्रीकमुद्रा प्रीकशिल्पका व्याकरण खरूप है। इसकी प्रस आदिकी मुद्रा विशेष प्रसिद्ध है। पश्चिम प्रदेशके . भौगोलिक और ऐतिहासिक उपयोगिता केवल ग्रीसदेश मध्य इटली और सिसलीकी मुद्रा हो प्रधान है। के लिये ही थी। किन्तु शिल्पनैपुण्यमें ये सब मुद्राए मुद्राशिल्पका प्रथम युग अलेकसन्दरके शासन- पृथिवीको साधारण सम्पत्ति है। यह मुद्राशिल्प उस काल और पारसिकों के पराभवके पूर्ववत्ती अर्थात . समयके शिल्पको छोटो सोमाको लांघ कर शिल्पशास्त्र. ईसा-जन्मसे ३३२ वर्षतक माना जाता है । के एक विशाल राज्यको अधिकार किये हुए हैं। उस इस समयके वाद जव भारतवर्षके अनुकरण पर Vilkill. 6