पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२३२

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मूलक-मूलकपोतिका २२६ "स गुप्तम लपत्यन्तः शुद्धपाणिरयान्वितः। ____ भारतमें सभी जगह, यहां तक, कि हिमालयके १६ षड़विधं बलमादाय प्रतस्ते दिग्जिगीषया ॥" (रघु ४।२६) हजार फुट ऊंचे स्थानमें भी मूलक उत्पन्न होता है। १५ देवताओंका आदि मन्त्र या वोज ( त्रि०) १६ / यह अकसर जाड़े में ही हुआ करता है। किन्तु शीत मुख्य, प्रधान। प्रधान देशोंमें यह सभी समय उत्पन्न होते देखा जाता मूलक (सं० पु० क्लो०) मूल संज्ञायां कन् । कन्दविशेष, मूली। संस्कृत पर्याय-राजालुक, महाकन्द, हस्ति | मूलीकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें मतभेद है । बेन्थम, दन्तक, नोलकण्ठ, मूला, दीर्घमूलक, मृत्क्षार, कन्दमूल, डि कण्डोल आदि R. Raphanistrum नामक जंगली हस्तिदन्त, सित, शङ्खमूल, हरित्पर्ण, रुचिर, दीर्घकन्दक, पेड़से ही इसकी उत्पत्ति बतलाते हैं। इस जङ्गली कुञ्जरक्षार, मूल। इसका गुण-तीक्ष्ण, उष्ण, अग्नि-] उद्भिद्को खाद मिले हुए उर्वरा स्थानमे रोपनेसे बोरे दोपक, दुर्नाम, गुल्म, हृद्रोग और वातनाशक, रुचिप्रद | धीरे उसीसे चौथे जन्ममें मूलक होते देखा गया है, परन्तु और गुरु। (राजनि०) वह उद्भिद् इस देशमें न रहनेके कारण उससे भारतीय __ भावप्रकाशके मतसे यह दो प्रकारका है, छोटा और मूलोकी उत्पत्तिकी कल्पना नहीं की जा सकती। यह वड़ा। छोटेका पर्याय--लघु-मूलक, शालाक, कटुक, | सालमें दो बार वोई जाती है, इसीसे प्रायः सब दिन मिश्र, वालेय, मरुसम्भव, चाणक्यमूलक और मूलक मिलती है। भारतवर्षके उर्वर क्षेत्रमें यह मनुष्यको पोतिका । गुण-कटुरस, उष्णवीर्य, रुचिकारक, लघु, ऊंचाईके समान होती देखी गई है। , पाचक, त्रिदोषनाशक, स्वरप्रसादक तथा ज्वर, श्वास, मूलीके वीजसे एक प्रकारका दुर्गन्धयुक्त तेल निकलता नासारोग, कण्ठरोग और चक्षुरोगनाशक । बड़ी मूली है। वह तेल वर्णहीन और जलसे भारी होता तथो उसमें हाथोके दातके समान वड़ी होती और नेपालमें उपजती गन्धकका भाग अधिक रहता है। वीज ही साधारणतः है। इसका गुण-रुक्ष, उष्णवीय, गुरु और त्रिदोष. औषधमें काम आता है, पर मूल भी बीजके समान गुण- 'नाशक । तैलादि स्नेह द्वारा पाक कर इसका सेवन | प्रद है । यह साधारणतः उत्तेजक मूत्रकारक और अश्मरी करनेसे विदोष नाश होता है। इसके शाकका गुण नाशक है। मूत्रकृच्छ, मूत्ररोध, मूत्रानुवन्ध और मूत्रा- पाचन, लघु, रुचिकर और उष्ण माना गया है। शयको पथरीमें मूलीके शाकका रस विशेष फलदायक है। ____ मूलसे मूलक नाम पड़ा है । साधारणतः मूलक (पु.) मूले जातः मूल (पूर्वाहनापराहा मूलप्रदोषो- पांच प्रकारका है-चाणक्य, गृञ्जल, पिण्ड, वाल और वस्कराद् छन् । पा ४३२८) इति बुन् । २ चौंतिस गुर्जर। प्रकारके स्थावर विषों से एक । मूल प्रकार इति मूल शास्त्र में लिखा है, फि माघके महीनेमें मूलक नहीं | (स्थलादिभ्यः प्रकारवचने कन् । पा ॥४॥३) इति कन्। ३ खाना चाहिये। सौर और चान्द्र दोनों ही महीने में मूलक | मूलस्वरूप । “नारी कवच इत्युक्तो निक्षत्रे मूलकोऽभवत् ।" खाना निषिद्ध है तथा माधके महीने में देवता और पितरों- (माग० CINE) को भी यह नहीं चढ़ा सकते। (त्रि०) ४ उत्पन्न करनेवाला, जनक । "मकरे मूलकञ्चैव सिंहे चालाबुक तथा । मूलकच्छद (सं० पु० ) कृष्ण शि, काला सहिञ्जन । कार्तिके शूरणश्चैव सद्यो गोमांसभक्षणम् ॥" मूलकपणी (सं० स्त्री० ) मूलकस्य पर्णमिव समानख़ाद' (कर्म लोचन ) | पर्णमस्याः , ङीप्। शोभाञ्जनवृक्ष, सहिजनका पेड़। , "पितॄणां देवतानाञ्च मूलकं नैव दापयेत् । मूलकपोता (सं० स्त्री० ) वालमूलक, कच्ची मूली। .. ददन्नरकमाप्नोति भुलीत ब्राह्मणो यदि ॥ मूलकपोतिका (सं० स्त्री० ) अति घालमूलक, अत्यन्त . ब्राह्मणो मूलकं भुक्त्वा चरेच्चान्द्रायण व्रतम् । कच्ची मूली । गुण-कटुतिक्त रस, उष्ण वीर्य और लघु- अन्यथा याति नरक क्षत्रो विशुद्ध एव च ॥" (मलमासत०) पाक। Vol. XVIII 58