पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२७

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२६४ मूर्छारोग वच इन सव द्रव्योंको गोमूत्रके साथ अथवा सैन्धवलवण, आने पर तीक्ष्ण संशोधन, लघु पथ्य, शक्करके साथ • मरिच और मैनसिलको मधुके साथ पीस कर आँखमें त्रिफला, चित्रक, सोंठ और शिलाजतुका प्रयोग करे। अञ्जन देनेसे मूच्छां दूर होती है। विशेषतः पुराना घी इस रोगमें बहुत उपकारी है। इस जलसेक, अवगाहन, मणि, माला शीतलप्रदेह, । प्रकार एक मास तक चिकित्सा करनेसे यह रोग दूर हो । व्यजन, शीतल पान, गंध आदि शैत्यक्रिया मूरोिगमें | सकता है। मूर्छारोगमें दोषाक्त ज्यरको ओषधका विधेय है। चीनो, पयार, ईखका रस, दास, मौल, प्रयोग करना चाहिये। विषजन्य मू रोगमें विषधन खजूर और काश्मयं इनके रसको पाक कर पानीय प्रयोग औषधका प्रयोग बताया गया है । (सुश्रुत मारोगाधि०) करे। काकोल्यादिगणके साथ पाक किया हुआ घृत, भावप्रकाश, चरक आदि वैद्यक प्रन्थोंमें इस रोगके मधुरवर्गके साथ दूध और दाडिमके साथ जंगली जान- निदान और चिकित्सादिका विशेष विवरण लिखा है। वरके मांसका रस पाक कर सेवन करावे। जौ, शालि विस्तार हो जानेके भयसे यहां पर कुल नहीं लिखा अन्न और मटर मूर्छारोगमें पथ्य है। भुजङ्गपुष्प, मिर्च, | गया। खसखसकी जड़, बेरको मजा समान भाग ले कर पलोपैथिक मतसे मूर्छारोग नाना कारणों से उत्पन्न खिलानेसे भी मू रोगको शान्ति होती है। होता है। मूर्छा ( Syncope) होनेसे संज्ञा- विलकुल __मटर भिगोये हुए जलमें मृणाल, मधु और चीनीके | जाती रहती है। जिस जिस कारणसे यह रोग मनुष्य- साथ पीपल और हरीतकी सेवन करावे। मूर्छाकालमें शरीर पर आक्रमण करता है, नीचे उसका संक्षिप्त नाक और मुहको बंद कर दे तथा स्तन पान करावे।। विवरण दिया गया है। इस समय सर्वदा तीक्ष्ण शिरोविरेचन और धमन कराना हपिण्डके प्राचीर अथवा किसी प्रधान धमनीके हितकर है। हरीतकी या ऑक्लेके रसमें पक्क घृत पान फट जानेसे अथवा उद्र-रोगने टैप ( भेदन ) द्वारा वड़ो करानेसे मूछोरोगमें बहुत लाभ पहुंचता है। दाख, | वड़ो रक्तनालोका चाप दूर करनेसे उनमेसे अकस्मात् चोनो, अनार, खसखसकी जड़ और नोलोत्पल इनका रक्त वहने लगता है और इसी कारण हृपिण्डके कोटर- काढ़ा गंधयुक्त कर रोगीको पिलावे। पित्तज्वरमें जो के रक्तशून्य हो जानेसे संज्ञाका लोप होता है। फिर सव योग कहे गये हैं वही सव योग इस रोगमें विशेष हृदयस्थ सुकुट-धमनो (Coronary veins) के रुद्ध उपकारो हैं। रहने अथवा ज्वरादि व्याधिके कारण पिण्डमें अप- दोप तथा तमोगुणको अधिकतासे जो व्यक्ति मूच्छित रिष्कार रक संचालित होनेसे यक्ष्मा और कर्कटरोग हो गया है, उसे तव तक संज्ञा लाभ नहीं होता जब तक आदि कठिन व्याधि तथा हृपिण्डके यान्त्रिक रोग, वह होशमें नहीं आता। यह रेग अत्यन्त कठिन है।। अत्यन्त शोक, मस्तिष्ककी कठिन पोड़ा, अत्यन्त दुर्गन्ध, जिस प्रकार कच्चे मिट्टोके टुकड़ोंके जलमें गिरनेसे उन्हें विकृत शब्द, अत्यधिक भयसञ्चार स्नैहिक.स्नायु अथवा विलीन होनेके पहले वाहर निकालना कर्तव्य है, उसी पाकाशयके ऊपर आघात, अधिक देर तक उष्ण जलसे प्रकार मूच्छित व्यक्ति जिससे प्रवुद्ध हो जाय, पहले उसी अवस्थान, बज्राघात, अग्नि द्वारा शरीर दाह, काथिटर की चेष्टा करनी चाहिये। तीक्ष्ण अञ्जन, धूम, नखके नामक नलप्रवेश, उत्तप्त शरीरमें जल पान या उपवासके भीतर सूचिका-घात, अपूर्व गीतवाद्य, आत्मगुप्ता बाद अधिक भोजन तथा ताम्रकूट, एकोनाइट एसिड, (केवांच ) को शरीरमें घिसना, इन सब क्रिया द्वारा हाइड्रोसियेनिक वा उरेरा सेवनके वाद, हृपिण्डका रोगीको प्रवुद्ध करना होता है। आक्षेप हद्वष्ट (Pericardium) में जलीय रक (Serum) सञ्चयके कारण हृपिण्डके ऊपर चाप आदि उद्दोपक मूछारोगमें आनाह, लालासाव और श्वासका उपद्रव रहनेसे उसके आरोग्यको सम्भावना नहीं है। क्योंकि ये कारणोंसे मूर्छा आ जाती है। युवक और युवती, सव लक्षण दुःसाध्य समझे जाते हैं। अच्छी तरह होश । दुर्घल हृदयकी स्त्रीजाति तथा स्नायुप्रधान धातुविशिप